Thursday, November 8, 2018

गद्य रचना😍ननिहाल 😍 अंक -  1
प्रिय मित्रों आपके सम्मुख एक कहानी प्रस्तुत कर रही हूँ ,आशा है आपका मनोरंजन करने में सफल हो सकूँगी |
कहानी थोड़ी लम्बी है ,इस कारण प्रतिदिन थोड़ा थोड़ा लिखने की सोच रही हूँ  शुरू करें
एक बात और ये मेरी कल्पना है किसी भी व्यक्ति या स्थान से इसका कोई लेना देना नहीं है |
########ननिहाल ########
शहर से गाँव पहुँचते ही बालक नीरज के मन में कौतूहल था ,एक बार गाँव का चक्कर लगा लूँ |
नीरज की आयु यही कोई आठ वर्ष के आसपास ,मोटा, गुदबुदा ,गोरा रंग ,अपनी मनमोहक मुस्कान से सभी का मन मोहने में सक्षम जिधर जाता गाँव के बच्चों की टोली उसके पीछे हो लेती | शहर के किस्से और नए नए खेल जो लाता था हर बार ,सब बच्चों को कोई कविता या कहानी भी सुनाता फिर गाँव के बच्चे साल भर वही दोहराते रहते | उसके मन में हीरो वाली फीलिंग आती ,अपनी ननिहाल आकर | इस बार माँ  नहीं आयी ,बाद में आएगी ,वो शहर से अपने ममेरे भाई पवनऔर बहन कुसुम के साथ आया है| पवन भैया करीब ग्यारह वर्ष के हैं ,कुसुम उसके जितनी ही है ,मामी मामा भी आये हैं | नाना और जिज्जी के पैर छूकर जैसे ही खड़ा हुआ ,पवन भैया झुक गए ,मौका मिलते ही नीरज बैठक से चबूतरे पर और चबूतरे से ऊँची कूद लगाता सड़क पर गिरते गिरते सम्हल गया | '"अहा ! बड़े हो गए नीरज भैया ! क्या बात है ?कमाल कर दिया " " चार सीढ़ी कूद गए ",कट्टे ने कहा । कट्टे नीरज का मित्र है उसके पिता  इक्का चलाते हैं ,और आध बटाई पर खेत और बाग़ लेकर अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं ,इसी वजह से नानाजी को बहुत पसंद हैं ,नानाजी का मानना है गाँव के लड़के दिशाहीन होते जा रहे हैं ,इसलिए शहर से आए बच्चों को सबके साथ मिलने नहीं देना चाहते वो , इकट्ठे खेलते हैं नीरज और कट्टे |
बचपन  का यही आनंद है ऊँच  नीच,कोई भी भेद नहीं जानता ये !,समझता है सिर्फ प्यार की बोली ,काश ऐसी सरलता हमेशा बनी रहती मनुष्य में ।
 अगर कट्टे के कपडे पसीने में भीगे ना होते ,आज अपने मित्र का स्वागत गले लग कर करता ,यही सोचता हुआ गाँव में भड़भूजे की दुकान की ओर जा रहा था उसकी जेब में चने की छोटी पोटली थी ,लेकिन भाड़ अभी गरम होने में देर थी ,अब दोनों चूरन वाले की ओर बढ़ चले क़रीब दोरुपये में बहुत कुछ मिल गया,  चकरी,लेमनज्यूस  की नारंगी गोलियां   ,चूरन ,गुड की पट्टी ,नीरज की आँखें ख़ुशी से चौड़ी हो गयीं "यार तुम्हारे गाँव में सब बहुत सस्ता है "दिल्ली बड़ा महँगा है,एक एक मीठी गोली  मुँह में डाल कर जैसे ही चलने को हुए,कुएँ के पास वाले आधे कच्चे ,आधे पक्के घर में रहने वाली  मामी ने आवाज़ लगाई "नीरज है का ! देखें तो कित्तो बड़ो हो गअो?   उनकी पकड़ से वो अपने को छुड़ाने का असफल प्रयास करने लगा, किंतु प्रश्नों की झड़ी लग चुकी थी सुषमा जिज्जी के का हाल हैं ,जीजा कैसे हैं ,कब तक रुकियो लला ,जिज्जी को पूछियो कब मिलन आय जाए  बतइयो बेटा ,भली !एक साँस में इतने प्रश्न छोटा बच्चा सहम गया बस इतना बोला माँ नहीं आई इस बार ,बड़े मामा के साथ आया हूँ ,वो शायद बाद में आएँगी।अब स्त्री ने थोड़ा बिसूरने वाले अन्दाज़ में कहा "अरे हमें पता है सुषमा जिज्जी को दुःख ,बे नाँय आएँगी,"अरे महतारी बिना का मायको " नानी बिना का ननिहाल !"
 नीरज को कोई भी बात अच्छी ना लगी इस स्त्री  की।अपने मित्र का उतरा चेहरा देख कट्टे ने कहा चलें भैया चने भुना लें । भड़भूजे की भाड़ पूरे ताव पे थी चनों के चटकने की आवाज़ के साथ एक पहचानी सी सुगंध भी नथुनों में भरने लगी ,नीरज अपलक गरम भाड़ की आँच देखता रहा |
अब तक शाम हो चली थी इसलिए घर का रुख किया ,तभी याद आया कट्टे का गिफ्ट तो दिया ही नहीं वापस उसके घर की और दौड़ा जेब में हाथ डाल कर हाथीदांत की अंगूठी निकाली ",तुम्हारे लिए ,पिछले मेले में प्रगति मैदान से खरीदी थी '' उसने कहा तो कट्टे अपनी शर्म छोड़ मित्र के गले लग गया |
क्रमशः......
लघु कथा
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बोनसाई
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उसकी उम्र थी यही कोई बीस बरस,जब उसने धरती से उखाड़ कर बरगद का पौधा गमले में लगाया था ।कल्पना की थी "एक दिन सुन्दर बोनसाई बनाऊॅगी,वैसा जो किसी प्रदर्शनी में भाग ले सके मोटी सी जड़ वाला बौना सा पेड़ जिस पर छोटे- छोटे फल लगे हों शाखाओं से नीचे की ओर जड़ें भी लटकती हों"।
समय भीअजीब होता है,कैसे फुर्र हो जाता है पैंतीस बरस बीत गए , काफी कुछ बदल गया इतने समय में,बहुत से रिश्ते बने ,स्थान परिवर्तन हुए बस एक स्वप्न अब भी है उसकी आंखों में वैसा ही ,बरगद को सुन्दर बोनसाई के रूप में देखने का, न जाने कब बनेगा? जैसा वो चाहती है, हर वर्ष अपने हाथों से जड़ों की छॅटाई की ,बिलकुल नाप तौल के मिट्टी भरी  छोटे से गमले में, पर मन का न बना बोनसाई,अपने बच्चों की तरह पाला,बच्चों से याद आया ज़माना बीत गया उन्हें घर से निकले। पिछले दिन की बात है, सावन की फुहारों में उसने सभी गमलों को लाॅन में भीगते देखा बरबस ऑखें बरगद के बोनसाई पर टिक गयीं कुछ लाल रंग बह निकला बरगद के नन्हे वृक्ष से,क्या रक्त बह रहा है? डर से प्राण पेट से चल कर गले तक आ पहुंचे उसके, बारिश की परवाह किये बिना दौड़ कर बोनसाई को देखने लगी जैसे कोई माॅ अपने शिशु को देखती हो, पूजा की रोली बह रही थी नन्ही टहनियों से ,रक्त का आभास देती थी, उसने बौने से वृक्ष के गमले को छाती से लगा लिया,आह!इतनी बड़ी भूल कैसे हुई मुझसे ? हर साल तुम्हारी पूजा की, व्रत रखा वट सावित्री का,सालों साल पूरे परिवार की सलामती की प्रार्थना की तुम्हारे आगे,और सावन के आते ही जब तुम बढ़ सकते थे आनन्द ले सकते थे मन भावन  ऋतु का तुम्हारी जड़े काट कर तुम्हें ही नन्हे से गमले में कैद कर दिया।
अभी इस का प्रायश्चित करना होगा, नंगे पाॅव हाथ में बोनसाई और खुरपी लेकर वो घर से दूर पार्क में लगवा आई ,माली को जब पांच सौ का नोट थमाया वो आश्चर्य से देखने लगा,रुंधे गले से बोली ध्यान रखना इसका, घर लौटते हुए बारिश ने उसके कपड़ों से रोली कुमकुम के दाग धो दिए ,
अपनी धुन में मगन थी,उसने देखा घर पीछे छूट गया था,सामने खुला आसमान था बाहें फैलाए।आज फिर स्वतः पाॅव पार्क की ओर बढ़ चले हैं ।बोनसाई को वृक्ष बनते देखना है।

## हिस्सा ## (लघु कथा )
ट्रेन दिल्ली से चल पड़ी वर्षों बाद नॉन ए सी स्लीपर क्लास में चढ़े उनकी उम्र यही कोई 62 वर्ष,उजले कपडों और चाल ढाल से अभिजात्य वर्ग का रौब चेहरे पर साफ नजर आता था।
उन्हें देखते ही चौबीस पच्चीस वर्ष की सींक सी पतली ग्रामीण युवती ने सिर पर आंचल कर लिया और अपने छोटे बच्चे को गोद में खींच कर बोली," गोपाल संभल कर बैठना नहीं तो बाबूजी के कपड़े गंदे हो जाएंगे" अपनी साड़ी के पल्लू से उनके लिए सीट पोंछ दी फिर पारले जी का पैकेट अपनी 5 वर्षीय पुत्र को थमा कर ऊपर की बर्थ पर बैठे व्यक्ति की गोद में पुत्र को चढ़ा दिया
" जरा थाम लीजिए, सुला दीजिएगा इसको नीचे उधम करेगा," बेटा बाबा को तंग मत करना
"हम बस उदयपुर तक जा रहे हैं ,गोपाल का जन्मजात पैर टेढ़ा था नारायण सेवा आश्रम में फ्री में इलाज हो रहा है इसका, डॉक्टर तो मानो देवता मनई है एक पैसा भी नहीं लेते हां दवाई का थोड़ा बहुत खर्च आता है ,"उसने पूरी बात कह कर ही सांस ली वह सामने की सीट पर बैठी स्त्री से बातें कर रही थी
वे स्वयं अहमदाबाद जा रहे हैं ,अपने छोटे भाई से बात करने की सोच रहे हैं पुश्तैनी मकान में हिस्सा चाहिए।
हालांकि कोई रहने नहीं जाएगा उन्हें भी पता है किंतु पिताजी की नाइंसाफी से दुखी हैं।
उनकी काबिलियत का अच्छा इनाम दिया पिता ने, जायदाद में से कुछ भी ना दिया।
सब कुछ छोटे पुत्र को दे दिया दलील यह थी कि वह बेचारा कभी अपना घर नहीं बना पाएगा ,विचारों की तंत्रा टूट गई।
युवा स्त्री के चेहरे से आंचल सरक गया बड़ी बड़ी आंखें उनको ही देख रही थी अब उनकी ओर मुहँ घुमा कर बैठ गई और उनसे से बोली ,
"जब से गोपाल के पापा की परमानेंट नौकरी लगी तब से 1 तारीख को पूरे ₹13000 बैंक में आ जाते हैंअब ठेकेदार के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता बाबूजी! अब हमेशा रिजर्व डिब्बे में पूरे आराम से हम जाते हैं अमृतसर से दिल्ली फिर दिल्ली में ट्रेन बदलकर उदयपुर ,बड़ा चैन रहता है" बातूनी लड़की थी वह फिर फुसफुसा कर धीरे से बोली" यह गोपाल के बाबा नहीं है सगे बाबा तो बिहार में रहते हैं समस्तीपुर में यह हमारे मोहल्ले के बड़े भले मनई है हम मां बेटे को अकेले आता देखकर साथ चले आए"
" हमारे यह यानी कि गोपाल के पापा पूरा ₹500 दिए हैं इनको पूरा उदयपुर घुमा दूंगी "
तभी बातचीत में व्यवधान आ गया
टिकट कलेक्टर आ गया था इसी बीच उनसे बोला ,"सर आप की सीट कंफर्म हो सकती है नेक्स्ट स्टेशन से आप एसी फर्स्ट क्लास में आ जाइएगा यहां से पांचवा डिब्बा है,"
आपके पास सामान है क्या सर?
" नहीं कुछ सामान नहीं है" ।
Sir, टिकेट यहीं बना दूँ?
एक मिनट उन्होंने पॉकेट में हाथ डालते हुए टी सी से कहा क्या आप रिटर्न टिकट बना देंगे दिल्ली का वे कुछ हिचकते से बोले आई मीन मैं दिल्ली वापस जाना चाहता हूं कुछ अर्जेंट काम आन पड़ा है अहमदाबाद नहीं जा पाऊंगा,"
टीसी ने कहा आप ट्रेन के बदले टैक्सी कर लीजिए सर!
टाइम और पैसे दोनों बचेंगे
हां शायद ठीक कह रहे हैं आप
उन्होंने टी सी को धन्यवाद दिया।
बाहर झांका ट्रेन ने धीमें होना शुरू कर दिया था।

टैक्सी में बैठते ही अपने छोटे भाई की याद आई वर्षों पहले जब उसे बुखार हो गया था वह रात भर गोद में लेकर घूमे थे उसके पसीने की बनियान से तब उनकी शर्ट भीग गई थी आज करीब 35 वर्ष बाद वह पुरानी घटना याद कर उनकी आंखें भर आयीं।
"जाते ही उस नालायक को पूरे परिवार के साथ दिल्ली बुलाऊंगा, इस बार दिवाली साथ मनाएंगे" ।.......प्रीति मिश्रा