बरगद
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उसकी उम्र थी यही कोई बीस बरस,जब उसने धरती से उखाड़ कर बरगद का पौधा गमले में लगाया था.
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उसकी उम्र थी यही कोई बीस बरस,जब उसने धरती से उखाड़ कर बरगद का पौधा गमले में लगाया था.
कल्पना की थी "एक दिन सुन्दर बोनसाई बनाऊॅगी,वैसा जो किसी प्रदर्शनी में भाग ले सके मोटी सी जड़ वाला बौना सा पेड़ जिस पर छोटे- छोटे फल लगे हों शाखाओं से नीचे की ओर जड़ें भी लटकती हों"।
समय भीअजीब होता है,कैसे फुर्र हो जाता है पैंतीस बरस बीत गए , काफी कुछ बदल गया इतने समय में,बहुत से रिश्ते बने ,स्थान परिवर्तन हुए बस एक स्वप्न अब भी है उसकी आंखों में वैसा ही ,बरगद को सुन्दर बोनसाई के रूप में देखने का, न जाने कब बनेगा? जैसा वो चाहती है, हर वर्ष अपने हाथों से जड़ों की छॅटाई की ,बिलकुल नाप तौल के मिट्टी भरी छोटे से गमले में, पर मन का न बना बोनसाई,अपने बच्चों की तरह पाला,बच्चों से याद आया ज़माना बीत गया उन्हें घर से निकले। पिछले दिन की बात है, सावन की फुहारों में उसने सभी गमलों को लाॅन में भीगते देखा बरबस ऑखें बरगद के बोनसाई पर टिक गयीं कुछ लाल रंग बह निकला बरगद के नन्हे वृक्ष से,क्या रक्त बह रहा है? डर से प्राण पेट से चल कर गले तक आ पहुंचे उसके, बारिश की परवाह किये बिना दौड़ कर बोनसाई को देखने लगी जैसे कोई माॅ अपने शिशु को देखती हो, पूजा की रोली बह रही थी नन्ही टहनियों से ,रक्त का आभास देती थी, उसने बौने से वृक्ष के गमले को छाती से लगा लिया,आह!इतनी बड़ी भूल कैसे हुई मुझसे ? हर साल तुम्हारी पूजा की, व्रत रखा वट सावित्री का,सालों साल पूरे परिवार की सलामती की प्रार्थना की तुम्हारे आगे,और सावन के आते ही जब तुम बढ़ सकते थे आनन्द ले सकते थे मन भावन ऋतु का तुम्हारी जड़े काट कर तुम्हें ही नन्हे से गमले में कैद कर दिया।
अभी इस का प्रायश्चित करना होगा, नंगे पाॅव हाथ में बोनसाई और खुरपी लेकर वो घर से दूर पार्क में लगवा आई ,माली को जब पांच सौ का नोट थमाया वो आश्चर्य से देखने लगा,रुंधे गले से बोली ध्यान रखना इसका, घर लौटते हुए बारिश ने उसके कपड़ों से रोली कुमकुम के दाग धो दिए ,
अपनी धुन में मगन थी,उसने देखा घर पीछे छूट गया था,सामने खुला आसमान था बाहें फैलाए।आज फिर स्वतः पाॅव पार्क की ओर बढ़ चले हैं ।बोनसाई को वृक्ष बनते दैखना है।
समय भीअजीब होता है,कैसे फुर्र हो जाता है पैंतीस बरस बीत गए , काफी कुछ बदल गया इतने समय में,बहुत से रिश्ते बने ,स्थान परिवर्तन हुए बस एक स्वप्न अब भी है उसकी आंखों में वैसा ही ,बरगद को सुन्दर बोनसाई के रूप में देखने का, न जाने कब बनेगा? जैसा वो चाहती है, हर वर्ष अपने हाथों से जड़ों की छॅटाई की ,बिलकुल नाप तौल के मिट्टी भरी छोटे से गमले में, पर मन का न बना बोनसाई,अपने बच्चों की तरह पाला,बच्चों से याद आया ज़माना बीत गया उन्हें घर से निकले। पिछले दिन की बात है, सावन की फुहारों में उसने सभी गमलों को लाॅन में भीगते देखा बरबस ऑखें बरगद के बोनसाई पर टिक गयीं कुछ लाल रंग बह निकला बरगद के नन्हे वृक्ष से,क्या रक्त बह रहा है? डर से प्राण पेट से चल कर गले तक आ पहुंचे उसके, बारिश की परवाह किये बिना दौड़ कर बोनसाई को देखने लगी जैसे कोई माॅ अपने शिशु को देखती हो, पूजा की रोली बह रही थी नन्ही टहनियों से ,रक्त का आभास देती थी, उसने बौने से वृक्ष के गमले को छाती से लगा लिया,आह!इतनी बड़ी भूल कैसे हुई मुझसे ? हर साल तुम्हारी पूजा की, व्रत रखा वट सावित्री का,सालों साल पूरे परिवार की सलामती की प्रार्थना की तुम्हारे आगे,और सावन के आते ही जब तुम बढ़ सकते थे आनन्द ले सकते थे मन भावन ऋतु का तुम्हारी जड़े काट कर तुम्हें ही नन्हे से गमले में कैद कर दिया।
अभी इस का प्रायश्चित करना होगा, नंगे पाॅव हाथ में बोनसाई और खुरपी लेकर वो घर से दूर पार्क में लगवा आई ,माली को जब पांच सौ का नोट थमाया वो आश्चर्य से देखने लगा,रुंधे गले से बोली ध्यान रखना इसका, घर लौटते हुए बारिश ने उसके कपड़ों से रोली कुमकुम के दाग धो दिए ,
अपनी धुन में मगन थी,उसने देखा घर पीछे छूट गया था,सामने खुला आसमान था बाहें फैलाए।आज फिर स्वतः पाॅव पार्क की ओर बढ़ चले हैं ।बोनसाई को वृक्ष बनते दैखना है।
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