Sunday, May 31, 2020

लघुकथा
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उधार
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बात करीब साठवें दशक की  है.
 उस लड़के के  खानदान की मानो परम्परा बन चुकी थी कि यदि कोई लड़का ठीक से पढ़ाई ना करता तो लखनऊ से बॉम्बे  जाने वाली ट्रेन में बैठ जाता था. सोचता था फ़िल्म इंडस्ट्री वाले उसके इंतज़ार में फूल माला लिए खड़े हैं.
दरअसल मुम्बई के गोरेगांव फिल्मसिटी  में रहते थे, उनके  मुनुआ चाचा, जो कि किसी कैमरा मैन के असिस्टेंट थे, या कुछ और छोटा मोटा कार्य करते थे. ठीक से मालूम नहीं है किन्तु उनके पास रहने को एक  कमरा था.
आने वाले भतीजों  का खुले दिल से स्वागत भी करते थे.

अब जब  उसने दसवीं में दो बार गुलाटी मारी, यह देख के घर में सभी आशंकित हुए इसलिये  उसे बड़े भइया पिताजी से ज़िद करके अपने पास गोरखपुर ले आये थे.
लेकिन बड़े भैया के चुग़लख़ोर दोस्तों के कारण उसकी भैया के  यहाँ अच्छी  वाट लग गई थी.
" शुक्ला जी आपका भाई पतंग उड़ा रहा था."
कोई कहता
"भरी दुपहरी में अमरुद के साथ सड़क  पर नीम्बू शिकंजी पी रहा था."
"स्कूल के समय पिक्चर हॉल में था."
बड़े भैया भी चुगली की  गंभीरता के अनुसार उसे कन्टाप धर देते थे. पता नहीं शहर के हर कोने में उनके दोस्त भरे पड़े थे.
उस दिन पहली बार गोलघर के  नुक्कड़ पर वसीम के कहने से सिगरेट बस उसके होठों से छू  ही पायी थी कि सामने से भैया के  मित्र महोदय दिख गए.
वो पिटने के डर से सीधा रेलवे स्टेशन भागा और बिना टिकट मालगाड़ी में छुप कर बैठ गया था. इत्तिफ़ाक़ देखिए गाड़ी बॉम्बे जा रही थी.
दो दिन बाद गोरे गांव पहुंचा तो मुनुआ चाचा तक फ़ोन से  ख़बर आ चुकी थी. उन्होंने भतीजे को प्रेम से गले लगा लिया.
चाचा ने कहा "मैं खाना बनाता हूँ तुम चटनी पीस लो, साथ में खाएंगे. "
वो दो दिन का भूखा था. फ़टाफ़ट खिचड़ी के साथ चटनी छप्पन प्रकार के भोगों से अधिक स्वादिष्ट लगी थी.
अब  हर दिन उसका काम था, चटनी पीसना, सब्जियाँ काटना, मुनुआ चाचा खाना बनाते जाते बीच बीच में कहते "जा बेटा कटोरी धो कर ला दे,  थाली और चम्मच भी धो लाना."
कभी कभी अठन्नी या एक दो रूपए भी दे देते थे चाचा.
उसने मन ही मन सोचा  था कि जल्द ही इससे ज्यादा कर लौटा देगा.

कहते हैं बॉम्बे ऐसा शहर है जिसने सबकी झोली भरी है. वो तो किस्मत वाला था, जल्द ही उसे कपड़े की मिल में नौकरी मिल गई थी.जीवन पटरी पर आ गया था.
 रहने को अपने कमरे की व्यवस्था भी हो गई थी.
अबके  चाचा जी के घर मिलने गया तो मिठाई और फल  ले गया था. उनके लिए एक लखनऊ का कुर्ता पायजामा भी खरीदा था. वो भी शरमाते हुए दे आया था.
जब वापस जाने लगा तो चाचा बोले "बेटवा हमारे पांच रूपए पचास पैसे......" जी चाचा जी."
उसने तुरन्त पैसे निकाले और दे दिए. पर मन खट्टा हो  गया था.
कुछ दिनों बाद उसने एक लड़की से विजातीय प्रेमविवाह  कर लिया, विवाह के समय फ़िर चाचा चाची जी आए  वर पक्ष से अकेले थे.
अब जब तब घरवाली से मिलने आते रहते थे.
पर हर बार  मुनुआ चाचा गोरखपुर से उसका पलायन और पांच रूपए पचास पैसे उधार की बात अवश्य छेड़ देते थे.
वो कभी चुपचाप  दे देता था. कभी अनसुनी  कर देता था.
पिछले दस वर्षों में आठ बार उधार चुकाया था उसने.
कुछ वर्षों में उसने वाशी में एक  प्लॉट खरीदा और उस पर बल्व बनाने की एक फैक्ट्री लगाई, इस बार पिताजी और बड़े भैया को भी बुलाया था.वो यहाँ का नामी व्यापारी था.
पिताजी ख़ुश थे कि  उनका नालायक बेटा इतनी उन्नति कर गया है उन्होंने मुनुआ को भी धन्यवाद दिया, तभी आदत के अनुसार मुनुआ चाचा को अपने पैसे याद आ गए, आज उससे ना रहा गया वो भी मुस्कुराते हुए बोला चाचा मैंने भी तो दो महीने आप की  कटोरियाँ चमचे धोए थे, सब्जी काटी थी, मेरा  भी कुछ पैसे का उधार आप पर बनता है.
सभी लोग ज़ोर से हँस पड़े थे, चाचा इधर उधर बगलें झाँकने लगे थे.

समाप्त 
प्रीति मिश्रा

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