गद्य रचना
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आँगन के उस पार
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बात आज़ादी से पहले की है, वो हवेली के आँगन के उस पार रहती थी.
वैसे तो ठाकुर साहब की तीसरी पत्नी कहलाती थी, पर ब्याहता नहीं थी.क्योंकि सबसे नयी थी इसलिये जाहिर है
उनको सबसे ज्यादा प्रिय थी.
दोनों पत्नियों की आंखों में खटकती थी वह.
उसका इधर आना बड़ी ठकुराइन ने निषिद्ध कर रखा था.
मंझली कुछ ना कहती. दूर से देखती थी.
जितनी रूपवती थी उससे दोगुना श्रृंगार जो करती थी. हर समय मुँह में पान के बीडे की लाली रहती या होंठ ही लाल थे. दूर से दिखाई नहीं देता था. ठाकुर साहब शौक़ीन थे. कुछ भी घर में ले आते थे. एक रात्रि के अँधेरे में उसे ले आये थे.
स्त्रियों का राय मशवरा लेना उनकी मर्दानगी के ख़िलाफ़ था.
सुख के दिन बीते और परिवार पर गाज गिरी, हुआ यों कि उनकी नौ वर्ष की पुत्री जिसका विवाह पिछले वर्ष किया था वैधव्य को प्राप्त हुई. जब घर में ख़बर आयी तो वो बच्ची अपनी गुड़िया की शादी रचा रही थी.
ऐसे वक्त में काम आयी आंगन पार वाली स्त्री. वो नन्ही बच्ची को जबरन आँगन के उस पार ले गई. एक भी बेहूदी रस्म ना होने दी उसने. इस मामले में ठाकुर साहब के साथ अंदर ही अंदर दोनों पत्नियां भी उसके साथ थीं.
दो चार महीने में सब ठीक हो गया था. वे अपने जीवन में आगे बढ़ चले थे.
फिर वह एक पुत्र और पुत्री की मां बन गई.
अब घर की बर्फ पिघल रही थी. आंगन के उस पार उसके घर से भजन और कीर्तन के मधुर स्वर आने लगे.
बच्चे घुटनों चल कर इस ओर आ जाते थे.अपने भोलेपन से बड़े भाईबहनों से मिल गए जैसे दूध में पानी.
तीनों स्त्रियां बैठती और अपने सुख दुःख कहतीं थीं.
पहली पत्नी के दो पुत्रियां थीं, पुत्र ना था. इसलिये ठाकुर साहब ने दूसरा विवाह किया था.
किन्तु मंझली पत्नी के तो पुत्र हुआ था....... फ़िर...... तीसरी बोल पड़ी ठाकुर साहब मुझे कोठे से खरीद कर लाए हैं. मुझे स्वयं भी अपने माता-पिता का पता नहीं है.
तीनों स्त्रियों के दर्द अलग थे.
ये दर्द ही उन तीनों स्त्रियों की मित्रता का कारण बन गया था.
बच्चे साथ-साथ बड़े होने लगे, और फ़िर एक दिन ऐसा आया कि तीसरी पत्नी बिना कुछ बोले जैसे इस घर में आई थी वैसे ही चली गई.
जाते जाते एक पत्र छोड़ गई थी. उन दोनों स्त्रियों के नाम. हो सके तो मेरे मालिक से कहना कि मैं बेवफा नहीं थी.
उन्होंने मुझ पर शक किया इसलिए अब उनका मुझ पर कोई हक नहीं है.
दोनों स्त्रियां रो पड़ी थीं. अपने हिस्से में आई बेवफ़ाई को याद करके, या सचमुच उस कुजात की हिम्मत और अपनी ग़ुलामी का शोक मना रही थीं.
काफ़ी देर विलाप करने के बाद ठकुराइन ने दोनों बच्चों को उठाया और आँगन के उस पार घर में रहने चली गईं.
अब ठाकुर साहब का वहां जाना निषिध्द हुआ था.
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आँगन के उस पार
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बात आज़ादी से पहले की है, वो हवेली के आँगन के उस पार रहती थी.
वैसे तो ठाकुर साहब की तीसरी पत्नी कहलाती थी, पर ब्याहता नहीं थी.क्योंकि सबसे नयी थी इसलिये जाहिर है
उनको सबसे ज्यादा प्रिय थी.
दोनों पत्नियों की आंखों में खटकती थी वह.
उसका इधर आना बड़ी ठकुराइन ने निषिद्ध कर रखा था.
मंझली कुछ ना कहती. दूर से देखती थी.
जितनी रूपवती थी उससे दोगुना श्रृंगार जो करती थी. हर समय मुँह में पान के बीडे की लाली रहती या होंठ ही लाल थे. दूर से दिखाई नहीं देता था. ठाकुर साहब शौक़ीन थे. कुछ भी घर में ले आते थे. एक रात्रि के अँधेरे में उसे ले आये थे.
स्त्रियों का राय मशवरा लेना उनकी मर्दानगी के ख़िलाफ़ था.
सुख के दिन बीते और परिवार पर गाज गिरी, हुआ यों कि उनकी नौ वर्ष की पुत्री जिसका विवाह पिछले वर्ष किया था वैधव्य को प्राप्त हुई. जब घर में ख़बर आयी तो वो बच्ची अपनी गुड़िया की शादी रचा रही थी.
ऐसे वक्त में काम आयी आंगन पार वाली स्त्री. वो नन्ही बच्ची को जबरन आँगन के उस पार ले गई. एक भी बेहूदी रस्म ना होने दी उसने. इस मामले में ठाकुर साहब के साथ अंदर ही अंदर दोनों पत्नियां भी उसके साथ थीं.
दो चार महीने में सब ठीक हो गया था. वे अपने जीवन में आगे बढ़ चले थे.
फिर वह एक पुत्र और पुत्री की मां बन गई.
अब घर की बर्फ पिघल रही थी. आंगन के उस पार उसके घर से भजन और कीर्तन के मधुर स्वर आने लगे.
बच्चे घुटनों चल कर इस ओर आ जाते थे.अपने भोलेपन से बड़े भाईबहनों से मिल गए जैसे दूध में पानी.
तीनों स्त्रियां बैठती और अपने सुख दुःख कहतीं थीं.
पहली पत्नी के दो पुत्रियां थीं, पुत्र ना था. इसलिये ठाकुर साहब ने दूसरा विवाह किया था.
किन्तु मंझली पत्नी के तो पुत्र हुआ था....... फ़िर...... तीसरी बोल पड़ी ठाकुर साहब मुझे कोठे से खरीद कर लाए हैं. मुझे स्वयं भी अपने माता-पिता का पता नहीं है.
तीनों स्त्रियों के दर्द अलग थे.
ये दर्द ही उन तीनों स्त्रियों की मित्रता का कारण बन गया था.
बच्चे साथ-साथ बड़े होने लगे, और फ़िर एक दिन ऐसा आया कि तीसरी पत्नी बिना कुछ बोले जैसे इस घर में आई थी वैसे ही चली गई.
जाते जाते एक पत्र छोड़ गई थी. उन दोनों स्त्रियों के नाम. हो सके तो मेरे मालिक से कहना कि मैं बेवफा नहीं थी.
उन्होंने मुझ पर शक किया इसलिए अब उनका मुझ पर कोई हक नहीं है.
दोनों स्त्रियां रो पड़ी थीं. अपने हिस्से में आई बेवफ़ाई को याद करके, या सचमुच उस कुजात की हिम्मत और अपनी ग़ुलामी का शोक मना रही थीं.
काफ़ी देर विलाप करने के बाद ठकुराइन ने दोनों बच्चों को उठाया और आँगन के उस पार घर में रहने चली गईं.
अब ठाकुर साहब का वहां जाना निषिध्द हुआ था.
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