Monday, December 21, 2020

एक कहानी अनकही

गद्य रचना
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एक कहानीअनकही
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मेवाड़ के छोटे से ठिकाने बिजौलिया के राव ठाकुर रतन सिंह कुछ दिन से अत्यंत उद्वेलित हैं. उनका संयमी मन अब किसी कार्य में नहीं लगता है. जब से उनकी पुत्री तेजल का विवाह नेपाल के शक्तिपुर के राणा के यहां तय हुआ है, उनकी रातों की नींद उड़ गई है.
अगर उनके बस में होता तो इस संबंध के लिए मना कर देते. किंतु उनके ऊपर मेवाड़ के राणा जी का दबाव था और राणा जी से बैर लेना उनके बस की बात नहीं थी.वे उनके मौसेरे भाई भी थे. अगर मन में संतोष था तो बस यह कि कम से कम उनकी बेटी हिंदू राजा के घर भी जा रही है.
वरना आजकल तो सत्ता लोलुपता इतनी बढ़ गई है कि कितने राजपूतों ने अपनी पुत्रियों के रिश्ते मुगलों के साथ कर लिए हैं.
उस दिन रतन सिंह की पत्नी देवल ने पूछ लिया "आजकल आपको क्या हो गया है और यह आप पुत्री को लेकर कहां निकल जाते हैं."
"विवाह के समय कोई पिता अपनी पुत्री को तलवारबाजी घुड़सवारी की शिक्षा देता है क्या?"
वो आगे बोलीं "विवाह में अभी 6 महीने बचे हैं.आप की अधीरता मुझसे देखी नहीं जाती है."
राव ने ठंडी सांस ली और बोले "पुत्री को घर से बहुत दूर भेज रहा हूं.इसलिए उसे किसी भी विषम परिस्थिति के लिए तैयार कर रहा हूं."
घर की बड़ी बूढ़िया चाहती थीं कि यदि तेजल घर में रहे तो वह उसे उबटन लगाएं, संगीत सिखाएं कुछ घर गृहस्थी की बातें भी सिखा दे.
राव की शिक्षा खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थी. पिता और पुत्री एक दूसरे के करीब आ चुके थे. दिन भर साथ रहती किशोरी तेजल से वे धर्म, राजनीति, समाज की बातें छेड़ देते थे.
उसने पिता से कहा "दात्ता ! क्या आप कभी मीरा बाई से मिले हैं.
ये प्रश्न क्यों पूछ रही हो?
उन्होंने पुत्री से प्रश्न किया "गढ़ में स्त्रियां हमेशा उनके बारे में बातें करती रहती हैं. कहती है कि वह अपनी मर्जी की मालिक है और उन पर कृष्ण जी की कृपा है."
"हां बेटा! कृष्ण जी की तो कृपा है ही किंतु मीराबाई पर सरस्वती मां की भी कृपा है. "
तेजल ने पूछा "क्या वे कभी हमारे घर आ सकती हैं. "
अब राव हँस पड़े थे "सीधे-सीधे कहो ना?
"तुम क्या जानना चाहती हो? "
" हां आप सुनाइए नाआपके मुंह से सुनना चाहती हूं. "
राव बोले" थोड़ी पुरानी बात है तब मैं वृंदावन में मीराबाई तुलसीदास और सूरदास इन तीनों से ही मिला था."
" किसी से कहना नहीं अपने कुछ साथियों के साथ मीराबाई को वृन्दावन पहुंचाने का कार्य हम लोगों ने ही किया था. "राव मुस्कुराए "अब घर चले. "
तेजल ने कहा "दात्ता ! आप लोग मुझे विवाह के बाद भूल तो ना जाएंगे.? "
"नहीं कभी नहीं याद रखना विवाह पर तुम्हारी विदाई हो रही है. हम में से कोई भी तुमको अलविदा नहीं कह रहा है." यह घर हमेशा तुम्हारे लिए खुला है क्योंकि लड़कियों को पितृ गृह से पति के घर भेजने की रीति है इसलिए तुम्हें भी जाना पड़ेगा.
" आपको क्या लगता है राज महल में मुझे अलग ढंग से रहना पड़ेगा. "
जब पुत्री ने पूछा तो पिता बोले "मनुष्य तो सभी एक से ही हैं, किंतु अक्सर सत्ता और धन की अधिकता से कुछ लोगों का दिमाग खराब हो जाता है. ऐसी परिस्थिति आने पर तुम्हें यह निर्णय स्वयं लेना पड़ेगा कि तुम्हारे लिए क्या उचित है."
" जी मैं समझ गई " तेजल ने फ़िर सवाल किया " आपको क्या लगता है स्त्री और पुरुष में कोई भेद है मेरा मतलब है कि वे शासन क्यों नहीं करती हैं.
ठाकुर रतन सिंह ने कहा "अभी नहीं करती हैं शीघ्र ही करेंगी, वो दिन दूर नहीं है जब वे अपने अधिकारों के लिए खुल कर लड़ेंगी. "
तेजल उत्साहित थी, उसके सांवले सुन्दर चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक आ गई वो कल्पना लोक में विचरने लगी थी
"मुझसे रानी पद्मिनी का जौहर बिल्कुल भी भूला नहीं जा पाता है. सोचिये कितनी स्त्रियां एक साथ मर गईं. कितनी बहादुर स्त्रियाँ थीं. सोच कर गर्व होता है किन्तु आँखों में आँसू आ जाते हैं. "
"और क्या करेगी हमारी राजकुमारी, अगर उसने कभी शासन किया तो "ठाकुर रतनसिंह ने पूछा मैं आपको, मां सा को और दादी सा को हमेशा के लिए अपने पास बुला लूंगी. राणा आगे बढ़े और अपनी पुत्री के पाँव छू लिए (जब वे प्रसन्न होते थे, ऐसा ही करते थे. )
बालिका तेजल दिन भर की थकान के कारण घर आकर सो गई थी. पिता की आंखों में नींद नहीं थी दिन पर दिन मन की चिंता बढ़ती जा रही थी.
समय पंख लगा कर उड़ गया और बेटी विदा भी हो गई है.
उन्होंने अपने आपको अब अन्य कार्यों में व्यस्त कर लिया है.
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तेजल को नेपाल आये पंद्रह दिन गुज़र चुके हैं.
वह सोच में पड़ी है...... यहाँ की भाषा अलग, खानपान अलग, विवाह संस्कार के बाद की रीतियाँ भी अलग हैं.
उसने नेपाल और मेवाड़ की संस्कृति में इतने भेद की कल्पना नहीं की थी.
यही सब विचार करते करते उस दिन संध्या हो गई और अंधेरा अपने पाँव पसारने लगा था कि कक्ष में उसकी प्रिय दासी राधा आ गई.
तेजल उसे सदा ही उल्लसित देखती है.
तेजल ने कहा "एक बात कहूं."
"जी क्या "राधा ने पूछा
"तुम क्या सोते हुए भी मुस्कुराती हो.
अपने पति से पूछ कर बताना मुझे."
राधा लज्जा से दोहरी हो आई और बोली, "आपके कक्ष में आते हुए डर नहीं लगता है अन्यथा जब मैं राजमाता के यहाँ थी तो मुस्कान क्या मेरी बोली भी नहीं निकलती थी."
"क्यों भला?"
तेजल ने पूछा
"आप तो राजकुमारी हैं क्या आपको नहीं पता कि बड़े राणा जी की पत्नियों में राजमहल में अपना स्थान बनाने के लिएआपस में कितना संघर्ष और छल कुचाल चलती रहती है. "
"वे विलासिता की चरम सीमा पर हैं. कई बार तो कोई दासी ही उनका जीवन दूभर कर सकती है. "
"अंत में सबसे अधिक व्याकुल तो राजमाता ही हो जाती हैं. अंतःपुर की राजनीति, षड्यंत्रों का निर्णय करते करते समय से पहले ही बूढ़ी हो गईं हैं वो."
"वे भी अपना क्रोध हमारे जैसे छोटे लोगों पर ही निकाल कर जी हल्का कर लेती हैं . "
"रानी साहिबा ये बातें अपने तक ही रखियेगा. अन्यथा मुझे राजद्रोह के अपराध में कारागार में डाल दिया जाएगा. "
राधा के जाने के बाद तेजल का मन मस्तिष्क घटनाओं की पुनरावृति करने लगा था उसका कुंवर जी के साथ विवाह, बिना शोर-शराबे के इस कक्ष में आना.
रानी माँ का उससे मिलने आना, उसके सांवले रंग को देखकर महल में खुसुर पुसुर होना.
उसने बिजौलिया में सुना था उसके विवाह संबंध से मेवाड़ और नेपाल के राजनैतिक संबंध सुदृढ़ होंगे इसलिए उसने प्रतिज्ञा की थी कि वो अपनी मातृभूमि के लिए अपना सब कुछ लुटा देगी........उसने विवाह में कुंवर जी की बस एक झलक ही देखी है सुंदर बलिष्ठ गौर वर्ण युवक,...... क्या वे उसको पसंद करेंगे?
तभी पिता के वचन याद आए "बेटी तुम सदैव याद रखना क्षत्रिय की पुत्री हो तनिक ना घबराना."
आज कुंवर जी से उसका प्रथम मिलन था.
वह गहनों और भारी-भरकम लहंगे और लज्जा के बोझ तले दबी जा रही है.
जब वे उसके कक्ष में आए तो वह हतप्रभ सी उनके मुखमंडल के भाव ही देखती रह गई, उसने सोचा था कि वह उन्हें प्रणाम करेगी किंतु घबराहट में भूल गई थी.
राज कुंवरने ने ही बातचीत प्रारम्भ की थी.
उनकी बातचीत का ढंग शिष्ट और शालीनता से भरा हुआ था. किशोरी तेजल का भय जाता रहा था . जब कुंवर ने कहा कि वे उसे कुछ उसकी पसन्द का उपहार देना चाहते हैं तो तेजल पुलकित और आनंदित हो उठी थी. वह धीरे से बोली" मेरे जैसी छोटे ठिकाने की एक लड़की का विवाह इस राजघराने में हुआ. ये अपने आप में बड़ा उपहार है. मैं सोचती हूं इससे अधिक सौभाग्य की बात किसी भी लड़की के लिए क्या होगी?
कुँवर बोले "मेरे प्रश्न का सही उत्तर दीजिये. आप अपनी कोई इच्छा बताइये तो सही इस संसार में जो भी प्राप्त है मैं आपको उपलब्ध कराऊंगा. "तब तेजल ने कहा" मैं सीता माता के जन्म स्थल का दर्शन करना चाहती हूं." "मैंने बिजौलिया में सुना था कि वे यही कहीं आसपास की थी."
उसके पति हंस पड़े थे उन्होंने कहा"आश्चर्य की बात है तुम्हारी आयु की किशोरी धर्मस्थल देखने की बात कर रही है, और हम राजपूत जब भी बाहर निकलते हैं तो सिर्फ युद्ध के लिए निकलते हैं.
किसी को ऐसा विचार क्यों नहीं आता है?
मैं वचन देता हूं कि हम दोनों अवश्य ही जनकपुर जाएंगे."
शक्तिपुर के जनसमुदाय में बात फैल गई थी राजकुमार नरेन्द्र जंग की पत्नी राजघराने की स्त्रियों से भिन्न है वह तेजस्विनी है मर्यादा का पालन करने वाली, सामान्य रंग रूप की किशोरी है किन्तु सिंघनी के समान निडर भी है.
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राणा नरेंद्र जंग को आराम तलबी के जीवन की आदत है.
उनके विलासिता पूर्ण जीवन में यह षोडशी कैसे आन टपकी? वे स्वयं अचम्भित हैं.
उनकी जीवन शैली इस बालिका से कहीं से भी मेल नहीं खाती है. किन्तु उसकी आभा के आगे वे नतमस्तक से होते जा रहे हैं.इस साधारण सी किशोरी को दूसरों की व्यथा दिखाई दे जाती है. जो उन्हें कभी अनुभव नहीं हुई. क्या इसका कारण राणा का सुख पूर्वक जीवन बिताना है?
तेजल जनसाधारण का मान, अपमान, न्याय, अन्याय ख़ूब समझती है. यहाँ तक कि राज महल की उपेक्षित रानियों की दुर्दशा को लेकर चिंतित है.
इतने ही दिनों में राजमाता उसे बहुरुपिया लगती हैं. वह अपने विचार प्रमाण सहित अपने पति के आगे प्रस्तुत कर चुकी है.
उन्होंने कभी ध्यान नहीं दिया था कि उनकी अपनी माता ही पिता द्वारा उपेक्षित हैं. राजमाता उनका शोषण कर रही हैं. माँ के साथ कुंवर का अब नया परिचय हुआ है.
तेजल महल की हर गतिविधि पर कैसी तीक्ष्ण पहरेदारी कर सकती है?
किन्तु तेजल को प्राप्त करने के बाद भी उनके मन को संतोष नहीं है. या कहें उसके गुणों का रंग फीका हो चला है.
जैसे जैसे समय व्यतीत हुआ राणा जी को आभास होता जा रहा है तेजल धर्मपत्नी तो बन सकती है.
वे उसे अपनी प्रेमिका नहीं बना पाएंगे.
विवाह के कुछ वर्ष बीत गए हैं. राजमहल में तेजल के विरुद्ध स्वर उठने लगे हैं कि वह अभी तक माँ नहीं बन पायी है.
राणा जी अब एक मृगतृष्णा में जी रहे हैं. उनकी रंगशाला विवाह के बाद भंग हो गई है.उन्हें उसकी याद सताने लगी, पहले वो अपने विलासी वातावरण में प्रसन्न थे. अधिक दिनों तक तेजल उन्हें बाँध ना पायी........ अपितु उसके संपर्क में कुछ ऐसे प्रश्न उठ खड़े हुए जिनसे राणा बचना चाहते हैं.
वे सुख से अभिशापित हैं, दूसरों की व्यथा देखना पसन्द नहीं करते हैं. वे अपने सुख के लिए आँखों पर पट्टी बाँध लेना पसन्द करेंगे. हां यदि वे चाहे तो अन्य स्त्रियों से संपर्क बना सकते हैं कोई नहीं रोकेगा किंतु वे तो भटक रहे हैं ना जाने किसकी खोज में?
शायद एक प्रियतमा की खोज में. उन्हें प्रेमिका चाहिए. एक रूपवती अपनी आयु की पत्नी.

उनकी इच्छा की पूर्ति भी शीघ्र हो गई थी.
अपने परममित्र के घर विवाहोत्सव पर उनकी भेंट पूर्वी नामक युवती से हुई जो कि नववधू की सखियों में से एक थी.
उसके रूप से उनकी आंखें चौथिया गई थी. कुंवर उसे पाने को मचल पड़े.
आनन-फानन में "पूर्वी"राणा नरेंद्र जंग की पत्नी हुई. उस विवाह की सभी रीतियों को पूर्ण कराने का उत्तरदायित्व रानी तेजल ने निस्पृह भाव से अपने हाथ में ले लिया है.
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इधर राजमहल में बड़े परिवर्तन हुए हैं.
इसी बीच राणा नरेन्द्र जंग के पिता का निधन हो गया और राजकार्य की सारी जिम्मेदारी नरेंद्र जंग पर आ गई है. शासन संबंधी राय मशवरे में राणा तेजल पर ही आश्रित है.
नवीन विवाह के बाद भी राणा नरेन्द्र जंग जब तब तेजल के कक्ष में देखे जाते हैं.
राणा और तेजल का साथ नई रानी पूर्वी को फूटी आंख नहीं सुहाता है.
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पूर्वी नित नये श्रंगार से अपने रूप पर आप ही मोहित है.
पूर्वी चाहती है किसी भी प्रकार राणा उसके वश में हो जाए.
उस साधारण सी दिखने वाली तेजल में ऐसा क्या है कि राणा उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते हैं.
पूर्वी की ऑंखें आजकल एक नवीन स्वप्न देख रही हैं.
राणा की पटरानी बनने का स्वप्न.
सुदूर देशों तक उसके सौंदर्य के चर्चे हों.
जनसमुदाय में तेजल की जगह राणा के साथ वह जाए.
इस राजप्रासाद की आने वाले समय में वो राजमाता हो.
तेजल उसकी आँखों में खटक रही है.
शीघ्र ही पूर्वी ने अपने गर्भवती होने के समाचार से राणा को चिरप्रतीक्षित सुख की कल्पना से भर दिया था.
राणा चाहते थे कि पूर्वी के स्वास्थ्य का ध्यान रानी तेजल रखे.
किन्तु तेजल को पूर्वी ने अपने पास नहीं फटकने दिया था. उसने तेजल से कहा वो अपनी सेवा में केवल उन्हें ही पसन्द करेगी जिनको माँ बनने का अनुभव है.
इसलिये रानी तेजल ने राणा से कुछ ना कहा उसने अपनेआप को अपने कक्ष में ही सीमित कर लिया है.
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पिछले कुछ दिनों से तेजल का जी बहुत घबराता है. भोजन पचता नहीं भूख मर गई है.
राधा ने उसकी यह दशा देखी तो बोली " मैं राजवैद्य को बुलाती हूं."
"नहीं रहने दे अगर दो चार दिन और तबीयत ठीक ना हुई तब देखेंगे."
तेजल को आज पितृगृह की बहुत याद आ रही है. उसने अपने पिता को एक पत्र लिखा और राणा जी से कहा कि कृपया वे यह पत्र बिजौलिया भिजवा दें.
राणा ने अनजाने ही पत्र खोल लिया तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. तेजल ने अपनी कुशलक्षेम के साथ ही ठाकुर रतनसिंह को शुभ समाचार भी सुनाया था कि वे नाना बनने वाले हैं वह चार मास की गर्भवती है और परंपरानुसार उसे प्रसव के लिए अपने मायके आना है.
राणा सोच में पड़ गए कि रानी तेजल ने यह शुभ समाचार उन्हें क्यों नहीं सुनाया?
क्या उनसे कुछ भूल हुई?
रानी राजमहल क्यों छोड़ना चाहती है?
अथवा परम्परा का निर्वाह करना चाहती है?
क्या उसे यहाँ किसी प्रकार की हानि का अंदेशा है?
किससे डर है उसे?
राजमाता से?
या पूर्वी से?
उन्हें साक्ष्य चाहिए.
किन्तु तेजल के प्राणों की रक्षा उनका प्रथम कर्तव्य है.
रानी तेजल के पास सभी प्रश्नों के उत्तर हैं.
वे समय आने पर ले भी लेंगे.
किन्तु अभी यही उचित यही होगा कि वे तेजल को मेवाड़ भिजवाने का प्रबंध कर दें. कहीं देर ना हो जाये.
उन्होंने रानी की विश्वस्त सेविका राधा और उसके पति को आदेश दिया कि वे मेवाड़ जाने की तैयारी करें.
साथ में विश्वत रक्षकों की टोली को साथ कर राणा जी ने अपनी पत्नी को मेवाड़ के लिए भारी मन से विदा दी और कहा, शीघ्र ही हमें अपनी और हमारी नन्ही जान की कुशलता का समाचार सुनाइयेगा.
तेजल अब करीब पच्चीस छब्बीस वर्ष की युवती थी. जब राजमहल में आयी थी एक किशोरी थी. आज इतने वर्षों बाद वह पितृगृह जा रही है.
ना जाने क्यों भय सा प्रतीत हो रहा है. उसके क़दम शिथिल हो रहे हैं. जब वह रथ पर सवार हुई तो पवन की गति से मन चल पड़ा है.
लाख झटकती है, पर विचारों की श्रंखला टूटती नहीं.
वह नेपाल के राजमहल में पलंग पर बैठ कर सोलह श्रंगार करने कभी भी नहीं आयी थी.
जब उसे पता चला था कि वह विवाह के चार पांच वर्षों बाद तक राज कुल को संतान नहीं दे पाई थी........ तो
राणा का विवाह भी उसके लिए कोई बड़ी बात ना था. वहाँ आये दिन यही सब देख रही थी.
उसने खुले ह्रदय से पूर्वी को अपनाया था.
उसे पूर्वी के सौंदर्य से भी कोई ईर्ष्या नहीं है.
किन्तु पिछले दो महीनों में पांच बार उसके भोजन में कुछ विषाक्त दवाइयां मिलायी जा रही हैं.उसके विश्वस्त सूत्रों ने बताया है. इसके पीछे पूर्वी के चाहने वालों का हाथ है.
अभी राणा तेजल के अनुकूल हैं, और उसकी गुप्तचरों पर पूरी पकड़ है.
किन्तु पूर्वी पर आक्षेप लगाते ही वह राणा की आँखों में एक सामान्य ईर्ष्यालु स्त्री रह जाएगी.
इसलिये उसे चुप रह जाना चाहिए था उसने वही किया था. पता नहीं सही था अथवा ग़लत .
तेजल के विचारों को विराम मिला जब राधा ने कहा
"नेपाल की सीमा छोड़ दी है. रानी साहिबा अब थोड़ी देर में मगध की सीमा में प्रवेश कर लेंगे हमलोग."
"ठीक है आपलोग जहाँ भी चाहें वहीं विश्राम की व्यवस्था करें."
"क्या रात्रि में हम लोग किसी धर्मशाला में रुकेंगे ?"साथ चल रहे घुड़ सवार अंग रक्षकों में से एक ने पूछा.
"नहीं कहीं बाहर ही तम्बू लगा लीजिए. मैं नहीं चाहती कि हमारे ठिकाने की भनक किसी को भी लगे."
जैसी आज्ञा.
एक दिन में वे लगभग बीस से तीस मील रास्ता तय कर पाते थे.
जैसे जैसे समय बीता रानी तेजल कांतिहीन होती जा रही थी.
उसके अंग रक्षकों ने कई बार विनती की कि यहीं रुक जाइये .आपका स्वास्थ्य सुधरे तब हम लोग आगे चलेंगे.
राधा ने भी कहा" इतनी दुर्बलता में आप स्वस्थ शिशु को जन्म कैसे देंगी?"
किन्तु रानी तेजल ने किसी की ना सुनी. उसके जीवन का एक मात्र ध्येय अपनेअंदर पल रहे शिशु के प्राणों की रक्षा करना था.
जिस बात का डर था वही हुआ तेजल बेहद कमज़ोर हो गई, उसने पितृ गृह जाने का विचार त्याग दिया था,
यहाँ से केवल चार कोस पर उसके नाना सा का गाँव था. जहाँ वह अपनी मां सा के साथ आया करती थी.
तेजल ने राधा को अपने पास बिठाया और बोली. यहाँ बी दासर के "ठाकुर मानसिंह जी "मेरे नानोसा हैं. यदि मुझे कुछ हो जाये तो मेरी सन्तान को उनके हवाले कर देना.
उसके स्वर क्षीण होते जा रहे हैं....... राधा.......
मुझे ये वचन दे कभी किसी को भी नहीं बताएगी कि मैंने अपनी सन्तान नानोसा को दी है. समझ रही है तू.
कुछ लोग ऐसे हैं जो मेरे बच्चे को मार देंगे....... मैंने देख लिया है कि मनुष्य के लिए जीवन जितना सरलता से जिया जाए उतना आनन्द दायक है..वो अगर साधारण जीवन जिएगा तभी अच्छा शासक बन सकेगा. मेरे बेटे की माँ बन जाना.और अगर बेटी हो तो उसे भी मजबूत बनाना ... राधा.... सुन रही है ना.
उसकी आवाज़ डूबती सी प्रतीत हुई.
राधा तेजल के गले लग कर रो पड़ी थी. तेजल ने कहा "आज के समय में हम स्त्रियों की आँखों में तेज और ज्वाला होनी चाहिए, ताकि हम विषम परिस्थियों में आग लगा सकें."
"तेरे मुख पर हमेशा मुस्कान ही शोभा देती है राधा!! आज मेरे निकट ही सो जाना देखती हूं तू रात में सोते हुए भी मुस्कुराती है या नहीं."

"मेरे बाद मेरी सन्तान की देखभाल कर सकेगी राधा!!"
"आप हिम्मत हार रही हैं रानी, देखिएगा प्रसव पीड़ा से निवृत होते ही आप ठीक हो जाएंगी."राधा बोली.
"मैंने राणा जी को वचन दिया है मैं आपको और आपकी सन्तान को वापस ले कर आऊंगी. "
तेजल का मुखमण्डल मधुर स्मित से भर उठा.
"राणा से मेरा सम्बन्ध बस यहीं तक था. अब तो मैं मां का कर्तव्य निभा रही हूं."
"ऊपर देख राधा" रानी ने बरगद के वृक्ष की ओर लटक रहे घोंसले को दिखा कर कहा, "इस घोंसले में रहने वाले पक्षियों को पता है यहाँ उनके अंडे और चूज़े सुरक्षित हैं."
"मैं भी जानती हूं तुम सब मिलकर इस रानी का मान रख लोगे. "
अगले दिन तेजल ने बरगद के वृक्ष के नीचे ही एक बालक को जन्म दिया.तब तक उनके अंग रक्षक ठाकुर मानसिंह को बुलाकर ले आए थे.
तेजल को बचाया ना जा सका था.
वह दुधमुँहे बालक को तीन दिन का छोड़ कर इस निष्ठुर संसार को विदा कह गई थी.इतिहास में यह घटना कहीं वर्णित नहीं है. अनेकों अवर्णित बलिदानों में एक बलिदान उसका भी था.
समाप्त
प्रीति मिश्रा

Saturday, December 19, 2020

गुलाबो

 *अप्रेल फूल स्पेसल***(नादानी)


**गुलाबो**


गुलमोहर के पेड़ के नीचे गुलाबो रहती थी

मां नहीं बाप नहीं

उसको किसी का साथ नहीं

सारे ग़म अकेले सहती थी

पेड़ के साए के नीचे पलकर बढ़ती थी

भूख लगी तो नन्हीं बच्ची 

दुनिया का मुँह तकती थी

स्नेह प्यार कब जाना उसने

लोगों की नजरों में उपेक्षा ही पढ़ती थी......


बीता बीता बचपन आई जवानी 

लड़की हो गई रूप की रानी 

फूल दार टॉप के नीचे फटी जीन्स थी मोटी

फूलों जैसी कोमल लड़की की कमर से नीची चोटी

उसकी रूप की चर्चा हर जुबां पर रहती थी.......

 

रहते थे उसी शहर में बी आर पांडे 

यानि बालक राम.....

सीधे सादे बंदे थे वे 

अपने काम से काम

बी आर को लोगों ने कर दिया था बुद्धू राम 

इस तरह प्रचलित था जग में 

उनका नाम 

शहर में अपना ऑटो रिक्शा चलाते थे

काम करके सीधे अपने घर आते थे ....


गर्मी की तपती दोपहरी

बेहाल थे बुद्धू राम

पसीने से लथपत 

था न एक पल भी आराम

देख गुलमोहर की शीतल छाया

रोक के ऑटो अपना बुद्धू सुस्ताया

देखा!! गुलाबो पेड़ के नीचे झूला झूल रही थी

गर्मी की उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी


नज़रे मिलीं लड़की मुस्काई

बुद्धू के अरमानों ने ली अंगड़ाई

साहेब पानी पिएंगे या ठंडा नींबू सरबत

शोख मुस्कुराहट ने दे दी दस्तक 

आंखों आंखों में जाने क्या बात हो गई ........

...................................................

झाड़ू पोछा बर्तन लड़की पांच सौ में पट गई 


बी आर का घर था पूरा कबाड़ 

इस दुनिया में ना उनका कोई रिश्तेदार

टीवी फ्रिज ए सी सब पर धूल जमी थी 

मकड़जाल की झालर धरती को छूती थी.......


1 घंटे में गुलाबो ने घर को चमका दिया 

बी आर का घर लाइज़ोल से महका दिया 

उनके मन में आशा की किरण फूटती थी......


पूरी तरकारी के संग उसने जो खीर पकाई

बुद्धू को उसमें महबूबा नज़र आयी

इसी अदा पर वो उसको अपना दिल दे बैठे

लड़की अपनी हो जाए दिन रात सोचा करते

उधर मोहल्ले में जितने भी रहते थे लफंगे 

लड़की के आगे पीछे फिरते थे बने पतंगे

इसी बात से बुद्धू की जान निकलती थी.....


बहुत सोचा और तिकड़म समझ में आई 

क्यों न छोकरी से कर लें 

कुड़माई

शादी का प्रस्ताव गुलाबों को बिल्कुल ना भाया,

बोली साहब बड़ा फालतू विचार आपको आया

मेरा कोई पता नहीं ना मेरा कोई गांव 

मेरे सिर पर बस गुलमोहर की छांव

बी आर ने लड़की की एक नहीं मानी 

उनने तो घर बसाने की थी ठानी

बेमन गुलाबो ने शादी को हां कर दी 

नौकरानी रानी हुई ....

आगे शुरू कहानी हुई .....


दोनों की शादी पर सारे हंसते

बुद्धू की नादानी के हर ओर थे चर्चे


दिन रात एक कर वो लड़की को तमीज़ सिखाते 

पढ़ने लिखने काअतिरिक्त दवाब बनाते 

वो जंगल की रानी 

थी अब किसी गमले का पौधा 

जीवन इतना कठिन होगा उसने कब था सोचा?

शादी ऐसा जंजाल वो ना समझती थी ..... 


नए नए टीचर उसे पढ़ाने आने लगे 

ए बी सी और वन टू थ्री.. 

उसको क्या था करना.?

उसने अंग्रेजी टीचर को 

प्रेम का पाठ पढ़ाया 

बांका छैला युवक उसे पहली नजर में भाया

किस्मत थी खराब........

उस रोज बुद्धू जल्दी घर आ गए 

लड़की को टीचर के साथ रंगे हाथ पा गए

आव देखा न ताव 

लड़की की खूब धुनाई की

इतने पर भी गुलाबो खुश दिखाई दी

अपना समझा था तभी ना इतना मारा

बेशक उसका बदन दुखता था सारा

बी आर की दिल ही दिल में इज़्ज़त करती थी.....


पर बी आर का गुस्सा यूँ ही नहीं थमा

बोले बेशर्म!लड़की हो जा यहां से दफ़ा

सारा सामान लपेट गुलमोहर को भिजवा दिया

जितनी जल्दी की शादी उससे पहले तलाक़ दिया

दो चार दिनों का रोना धोना 

ग़मगीन दिखाई दी

उसके बाद गुलाबो पुराने ढर्रे पर लौट आयी

उसने अपनी आजादी का फ़िर से जश्न मनाया

साड़ी, बिंदी,चूड़ी बक्से में बंद कर दी

पहनी फटी जीन्स और बजाई 

फिर से साइकिल की घंटी

गुलमोहर के पेड़ के नीचे ..........प्रीति मिश्रा2nd april

Thursday, December 17, 2020

 वक़्त 

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क्यों किसी को कोई रास्ता नज़र नहीं आता

 बुरे वक्त! क्यों जल्दी से गुज़र नहीं जाता...



 बंद पलकों के ख़्वाब कुछ इस तरह टूटे 

 खुली आंखों में हौसलाअब नज़र नहीं आता...



एक मासूम ने फ़िर माँ से यूँ पूछा है सवाल 

मुद्दतों से कोई अपने घर क्यों नहीं आता...


दिन रात मौसम बदलने की रिवयात है यहाँ

फ़िर क्यों ठहरा है मंज़र,बदल क्यों नहीं जाता...



हवा में ख़ौफ़ है इतना अपने पराये क्या कहिये 

 एक पल भी किसी दिल से डर क्यों नहीं जाता...



दुश्मन है तो दुश्मनी निभा वार सामने से कर 

पीठ का खंजर क्यों तेरा दिल दुखा नहीं जाता...


प्रीति मिश्रा 

Sunday, December 13, 2020

संगीत

 शब्द सृजन 

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(संगीत)


चाहा जो, ना पाया मैंने 

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चाहा जो,ना पाया मैंने 

फ़िर भी जश्न मनाया मैंने 

इस जग को कैसे बतलाती

कुछ कहती कुछ बात छिपाती 

शब्दों की भूल भुलैया में, क्यों कर खुद को उलझाती 

सारा दर्द भुलाया मैंने 

चाहा जो,ना पाया मैंने 


लोगों से मिलकर देखा है 

सारा जग मेरे जैसा है 

थोड़े सुख हैं ज्यादा ग़म हैं 

फ़िर भी ज़िन्दा हैं क्या कम हैं 

जीवन को जैसा ही समझा, उसी तरह अपनाया मैंने 

चाहा जो ,ना पाया मैंने 

फ़िर भी जश्न मनाया मैंने 

 

लगन से अपनी सब सुर साधे

रहे अधूरे आधे आधे 

छू जाए जो अंतर्मन को

ऐसा कुछ ना गाया मैंने 

जिस दिन सच्चे सुर लग जाएं, ये संगीत अमर हो जाये 

इसी आस पर सारा जीवन 

सोच सोच बिताया मैंने

प्रीति मिश्रा 16/11/2019

कविता महफ़िल

:महफ़िल 

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जाने क्यों होता है 

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ऐसा क्यों होता है 

जाने क्यों होता है 

लोग देखते तो हैं मुझको 

पर बातें आपकी करते हैं 


जानना कुछ और चाहते  हैं 

सवाल कुछ और ही करते हैं 

हमारी  मोहब्बत के किस्से 

उनकी महफ़िल  में चलते हैं 


कितने  अफ़साने और किस्से 

जो ना थे कभी अपने हिस्से 

इतनी शिद्दत से सुनाते  हैं 

उनके झूठ सच से भले लगते हैं 

चाँद आ जाता है ज़मीं पर 

तारे भी गुफ़्तगू सी करते  हैं 


समझती हूँ मैं मासूमियत उनकी 

हैं बिलकुल हमारे ही जैसे वो 

बात बस इतनी है 

हम कह लेते हैंआसानी से दिल की बातें 

वो जज़्बात दिल में

दफ़न रखते हैं 

अपनी आँखों को इजाज़त देते नहीं 

ख़्वाबों को सजाने की 

दिल में ताक़त नहीं शायद 

भूले नग़मों को गुनगुनाने की 


अपने अरमानों पे क़फ़न  रखते  हैं 

ना जाने कैसे भरम रखते हैं 


ऐसा क्यों होता है 

जाने क्यों होता है

प्रीति मिश्रा

सुनते हो

 

************

सुनते हो !!

*********

सुनते हो !कल रात मुझे एक ख्वाब आया 

अपना गाँव खेत बाग़ सब साथ साथ आया 


तितलियाँ उड़ती थीं, चहचहाती थीं चिड़ियाँ 

पेड़ों की  छाँव  में खिलखिलाती थीं लड़कियाँ 


ख्वाब रंगीन होते हैं मान लो बताती हूँ तुम्हें 

सुनो ना ध्यान से किस्सा अब सुनाती  हूँ तुम्हें 


गीली मिट्टी में मैं बीज दबाती जाती  थी 

पीछे मुड़ती तो फूलों को खिला पाती थी 


आदतन तुम फूलों के बारे में बात करते थे 

मानों फ़िर कोई भूली सी किताब पढ़ते  थे 


मेरी उंगलियां तुम्हारी उँगलिओं में फंसी  थी 

तुम्हारे चेहरे पे आफ़ताब और मासूम हंसी थी 


तुमको कल  रात अपने बेहद करीब पाया मैंने 

बड़े दिनों बाद ऐसा अच्छा वक्त बिताया हमने 


सुबह  जागी तो एक टीस सी  उभर आयी 

हाय!क्यों गाँव छूटा और क्यों मैं शहर आयी

प्रीति मिश्रा

कविता उफ़ ये सर्दी वाली रात

 थीम सृजन 

++++++++

उफ़ ये सर्दी वाली रात 

++++++++++++++


आई बड़े दिनों के बाद

 ऐसी सर्दी वाली रात 

मिलकर झूमे नाचे आज 

चाहे डिस्को चाहे जाज़ 

ठंड में लग जाएगी आग 

जो इतना रंगीं होगा साथ 

आई बड़े दिनों के बाद.... .... 


मिल के रंग जमाएं 

चलो सेल्फ़ी खिंचवाए 

क्यों झिझके क्यों शर्माएं 

जो दूर खडे हैं सारे आ जाएं 

हम हैं यारों के यार 

देखो छाई क्या बहार 

आई बड़े दिनों के बाद 

ऐसी सुहानी रात........ 


अभी हम घर ना जाएंगे 

यहीं पर जश्न मनाएंगे 

थोड़ा सा दीवानापन 

उस पर छाया पागलपन 

जो जी चाहे कर ले आज 

अजी किसका करें लिहाज 

आई बड़े दिनों के बाद 

उफ़ ! ऐसी मतवाली रात

 प्रीति मिश्रा

कविता हाँ हूं जी उसकी आँखों में दर्द छलका.

 

=====================

उसकी आँखों में दर्द छलका....,

*********************


सत्रह बरस का 

सांवला लड़का 

शहर में अकेला

आ पहुँचा है 

ठेठ दूर गाँव से...


घबरा कर ऊँची इमारतों से 

खड़ा रहता है 

किसी पेड़ तले 

मानो आया हो 

किसी अपने के घर...


स्विगी जोमैटो के बैग

लटका कर अपनी पीठ पर 

चहक उठता है 

ऑर्डर मिलते ही....


करने लगता है बात 

निपट अनजानों से 

हाँ,  

हूं, 

जी, 

अच्छा में 

देता है जवाब....


डालता है ठिकाना 

गूगल मैप पर 

मारता है किक बाइक पर 

और करने लगता है बातें 

पवन से....


चमक है उसकी आँखों में

पहुँच है बड़े बड़े लोगों से 

जाने खोलेगा कौन दरवाज़ा

उड़ता है सोचता हुआ..,


टटोला है चोर जेब को 

खौंसे है जिसमें 

चन्द छोटे बड़े नोट,

छुअन और चुभन उनकी p0

दिला रही है याद उसे 

घर परिवार की ज़िम्मेदारी की..


नहीं हैं परवाह उसको 

गर्मी, जाड़े,बारिश की

कहाँ डरता है वो 

मौसमों के मिज़ाज से 

शहरी शोर की आवाज़ से....


भेजेगा अबके और ज़्यादा घर को 

कम हो बापू का क़र्ज़ा 

माँ के लिए लग जाए 

घर में पानी का नलका 

याद कर कर 

उसकी आँखों में दर्द छलका...


बज उठता है फिर 

पॉकेट में रखा फ़ोन

पौंछ कर आंसू अपने 

हंसता है फिर वह लड़का,

और हो जाता है फिर से 

दौर हाँ, हूँ,जी, अच्छा का....

चुप रहना बेहतर होगा

 शब्द सृजन  अच्छा 

***************

चुप रहना बेहतर होगा 

---------------------------


अच्छा गर मैं कहूँ वही 

जो तुमको बस भाता है 

फिर होगा क्या 

सोचा है !!

यह मान मुनव्वल रुठा, रूठी 

रह जाएगी कहीं धरी 

जीवन बिल्कुल नीरस होगा....


अच्छा मैं चल पड़ी अगर 

उस राह पे

जिसपे चलते तुम  

हैरान हो थम जाओगे क्या!

जब साथ खड़ा मुझको पाओगे

जीवन पथ कुछ बेहतर होगा? 

या दर्द कहीं कुछ कम होगा ....!!!


अच्छा जो बतलाऊँ  तुमको 

अपने दिल की सच्ची सच्ची

कैसे गुज़री क्या-क्या गुज़री

किस को दोषी ठहराओगे 

जीते हुए हार ना जाओगे 

जीता समझो खुद को तुम 

मैं हार के खुद को जीत चुकी

तुमको इस भ्रम में रहने दूँ

सो चुप रहना बेहतर होगा....

दिल और दिमाग़ कविता

 थीम सृजन (दिल और दिमाग़ )

************************

दिल ने हरदम की मनमानी 

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दिल ने हर दम की मनमानी

रही दिमाग़ से खींचातानी 

अपना तो ऐसा ही किस्सा 

लोग कहें इसको नादानी 


रंग बिरंगे स्वप्न दिखा कर 

दिल ने मुझको खूब फंसाया 

 भूल भुलैया में ला छोड़ा 

रस्ता कोई नज़र ना आया 


अब जीवन की सांझ हुई रे !!

दिल को जब समझाना चाहा

हँस कर बोला झूठ है ये सब

दिमाग ने बस उलझाना चाहा 


मैं जानूँ वो सच बोले है 

पर उसको पागल कहती हूँ 

वो भी पगली कहता मुझको

सुन सुन के मैं हँस देती हूँ

कैसे समाज कैसे रिवाज़



कैसा  समाज, कैसे रिवाज़ 

*********************

5 फुट 7 इंच लंबी, गोरी 

 नीली आंखों वाली लड़की

 ससुराल में सब काम करती 

 नित्य 

ज़ालिम पति के हाथों अपमानित होती 

क्योंकि ब्याहता तो थी 

 पर गरीब मां-बाप की औलाद को  

 चंद रुपयों की उधारी के एवेज में 

  ससुर जी ने 

बिगड़ैल पुत्र हेतु खरीदा था


 इसी बात को लेकर उसका पति 

दिन रात ताने देता था 

उस रात ज़ुल्म की इंतहा  थी 

 जालिम ने सर्द रात में

 ठिठुरती  स्त्री को 

घर के आंगन में 

विवस्त्र कर निकाल दिया 

कपड़े यहीं रख जा 

तेरे बाप ने नहीं दिए हैं 

वो बहुत गिड़गिड़ाई थी 

तब कहीं सुबह चार बजे 

कमरे में आ पाई थी 

आंसुओं और अपमान से सराबोर 

मन ही मन कर लिया था प्रण 

तोड़ देगी वो ये बन्धन 

जो तिल तिल मरने को 

मजबूर करता है 


फ़िर दिन मास वर्ष बीते 

एक दिन अख़बार में 

ख़बर छपी 

कई दिनों तक समाज में चर्चा रही 

क्या ज़माना आ गया 

किसी को कोई शर्म 

लिहाज़ ही ना रहा 

देखो दो  बच्चों की माँ 

प्रेमी संग भागी 

हाँ  कई बरस लग गए थे 

तोड़ने में ये झूठे रस्मों रिवाज़ 


अब जो प्रेम करेगा 

वही है पति कहलाने का अधिकारी 


हाँ मेरे बच्चों !!

भूख,  अपमान, लानतें 

पड़ गईं हैं ममता पर भारी 

जब भी मौका पाऊँगी 

तुमको भी 

नर्क से निकाल लाऊंगी 

वो अब मुंबई में मॉडलिंग करती है 

जो कपड़ा तन पर रख ले 

वही फैशन बन जाती है 

बड़े बड़े बैनरों, पोस्टरों 

में नज़र आती है 

अच्छे पैसे कमाती है 

काम से थक कर चूर 

जब बिस्तर पर जाती है 

बच्चों की तस्वीर देख

 दो आंसू ढुलकाती है

होली


होली है जी!! होली है !!

****************

भाँग घुटी जब ठंडाई में 

 

बच ना पायी हरजाई से 


रंग लगाकर तन पे कच्चा 


मन को रंग गया ऐसा पक्का 


साजन जी के हाथ पिचकारी 


सजनी देवे हँस हँस गारी 


पीली नीली थाप ना मारो 


मुझको कोई आज बचा लो 

 


नयन लजावै, होंठ मुस्कावे 


अँखियन के जुगनू चमकावे 


मुड़ मुड़ भागे और तरसावे 


ना ना करती मन को उकसावे 


चंचल चपल पल में छुप जावे 


चंद्र कला सी दिन में दरसावे 


कोरी चुनरिया ओढ़ के गोरी 


गावे ढोल की थाप पे होरी 


ना करियो जी जोरा जोरी 


नाज़ुक कलइया है जी मोरी 


बीत गए दिन याद है आयी 


पहली होली भूल ना पाई 


मैंने अपनी बात निभा दी 


एक होली पर उम्र बिता दी


  प्रीति मिश्रा

महामारी

 शब्द सृजन (महामारी)

#############


आत्म मंथन 

**********


महामारी 

बता कर प्रवेश कर रही है 

सावधानी 

और सजगता से 

मिल जुल कर लड़ भी लेंगे 

आने वाले समय में 

निपट भी लेंगे 

है सबसे कारगर उपाय 

एक ही 

लोगों से कम से कम मिलिये 

किन्तु 

आत्ममन्थन का समय है 

कहाँ को चली थी मानव जाति 

और कहाँ आ खड़ी हुई है 


सब जानते थे 

और डरते भी थे 

इन कृत्रिम संसाधनों के ऊपर 

जीने की आदत 

अगर 

छोड़नी पड़ी 

तो क्या होगा? 

सब धराशायी तो ना हो जाएगा 


कैसे गोलमोल उलझा लिया 

मनुष्य ने स्वयं को 

अपने द्वारा फैलाये जाल में 

किसी से सुना था 

आने वाले समय में 

मानव को सबसे बड़ा खतरा 

मशीनों से होगा 

लेकिन नहीं 

उससे पहले आ गया 


 एक नन्हा सा वायरस 

 चेताने 

ऐ !!चतुर चालाक 

मनुष्यों 

अब भी ठहरो थोड़ा 

धीमे क़दम रखो 

कभी ख़ुद से भी तो मिलो 

कहाँ भागते हो 

किससे है ये प्रतिस्पर्धा 

देखो जीवन सुन्दर है 

महसूस तो करो 

कुछ रोज़ 

घर में रहो 


बाहर द्वार पर 

चिड़ियाँ चहचाती हैं 

सुनो!!

 उसमें जीवन संगीत 


खिड़कियों से झांको 

 सड़क के उस पार 

आज धीमी पड़ी है 

गाड़ियों की 

रफ़्तार 

कितने सुन्दर पुष्प खिले हैं 

इस बार जब हो जाए सब ठीक ठाक 

कुछ पौधे रोप आना 

तुम भी वहाँ उद्यान में 


बार बार धोते हुए हाथ 

याद करो 

वो पुरानी कविता 

जो तुम बचपन में गाते थे 

आँख पे उंगली, नाक में उंगली 

मत कर, मत कर, मत कर !


अपनों की आँखों में झांको 

फ़ुरसत के पलों में 

यही पाओगे 

ये जो थोड़ा सा डर

दिखता है ना 

दरअसल तुम्हारे लिए छुपा 

असीम प्यार है 

काहे की भागदौड़ यार 

जब नश्वर ये संसार है !!!

प्रीति मिश्रा

वक्त है मनन करें (कविता )


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वक्त है मनन करें 

**************

अनुभूतियों, संवेदनाओं 

को नया प्रवाह दें

 प्रस्फुटित होंगे तभी 

विचारों के नव अंकुरण

है जहां पर स्वस्थ मन 

रहता वहीं है स्वस्थ तन 

 वक्त है मनन करें 

उठ कर कोई सृजन करें !!


स्वयं को हम संवार लें 

निखरें और उत्कृष्ट बने 

सुलझे हुए विचार हों 

ह्रदय में सभी से प्यार हो 

हानि-लाभ से परे 

सुख दुख से ना डरे 

जय पराजय में हो सम 

ऐसा बना लें अपना मन 

वक्त है मनन करें 

उठ कर कोई सृजन करें !!!


हताशा, निराशा, विषमता

किसलिए क्यों कर रहे 

परिवर्तन चक्र है जीवन का 

पृष्ठ हैं बदल रहे 

नित पाठ सब हैं पढ़ रहे 

जो घटित है हो रहा 

उसको तो होना ही था 

क्या लाया था जो खो गया 

फ़िर किस लिए उदास है 

वक्त है मनन करें!!

उठ कर कोई सृजन करें!!

है सितारों से आगे एक जहाँ


 "है सितारों से आगे "

*****************

तुम मुझसे मिले थे 

सौ फूल खिले थे 

यू मंद मंद मुस्काई पवन

महसूस हुई वर्षा की छुअन 

बदला बदला सा था सारा समां 

इतना सुन्दर पहले ना था जहाँ...


मुझे होने लगा था तब ये यक़ीं

ख़ुश मुझसे ज़्यादा कोई नहीं 

तुमने कहा था संग संग चलेंगे 

चाहे दिन ढले चाहे बरस ढलेंगे...


मैंने मान लिया था..हाँ जान लिया था 

जो तुमने बताया जो तुमने सुनाया 

बन्द आँखों से देखा एक ऐसा जहाँ 

जहाँ मैं थी जहाँ तुम थे ल..कोई और नहीं...


उस रोज़ भी सपने में घूम रही थी 

दुनिया की मुझको फ़िक़्र नहीं थी 

याद है मुझे मिलना इंद्रधनुष से 

जिसने रुपहला संसार सजाया था 

मैंने पूछा उसे था तू रहता कहाँ है 

शरमा के बोला था है सितारों के आगे एक जहाँ...


पर टूट गया जो स्वप्न रचा था 

साथी भी अचानक छूट गया था 

तुम ऐसे गए फ़िर आये नहीं 

मैंने ढूंढा बहुत मिल पाए नहीं 

तुम झूठे नहीं थे मजबूर हुए थे 

वरना क्यों सूखे जो फूल खिले थे...


है ये हक़ीक़त मान लिया है 

मिलना बिछड़ना भी जान लिया है 

कोई बात नहीं तुम रहना वहीं 

एक रोज़ मैं भी आऊँगी वहीं 

फ़िर फूल खिलेंगे मुस्काएगी पवन 

हर ओर महकेगा तन मन और चन्दन...


सच कहता था इंद्रधनुष उस दिन 

है सितारों के आगे भी एक जहाँ 

मैंने पूछा था तुम से तू रहता है कहाँ 

बोला था तू है सितारों के आगे एक जहाँ

ढूँढती हूँ तुम बिन मैं यहाँ और वहाँ 

कहाँ है वह सितारों से आगे का जहाँ...

दिल ( कविता )

 शब्द सृजन -दिल 

##########


दिल की बात जुबां पे ग़र ले आऊं मैं

डरती हूँ कहीं तमाशा ना बन जाऊं मैं


 ख़यालात मेरे ,ज़माने से जरा हट के हैं 

रस्तों में कभी तनहा ना पड़ जाऊँ मैं


सफ़र में अपने मुद्दतों कभी रुकी ही नहीं

इक उम्मीद पे कि शायद मंजिल पा जाऊं मैं


कैसे छिड़ी जंग हवा में ,नज़र आता है मुझे

 मिटा दे ग़लफ़हमी तू और चैन से हो जाऊं मैं


इत्तला करके अब आएंगे सब मिलने वाले 

ज़माने के नये चलन से बहोत घबराऊँ मैं


प्रीति मिश्रा

कविता ज़िन्दगी


**********

 ज़िन्दगी इत्तिफ़ाक़ है 

*******************


कभी उमड़ी घटा, कभी गीली माटी की सौंध 

कभी शोला कभी शबनम सी लगा करती है ज़िन्दगी...


उगते सूरज सी रौशन न सही मगर

अंधेरों से लड़ कर चमकने का दम रखती है ज़िन्दगी....


जिस्म तो खिलौना मिट्टी का मिटने को ही बना

ताउम्र न जाने किस सफ़र में रहा करती है ज़िन्दगी....


 आसमानों से ऊँचे ख्वाहिशों के सफ़र जिनके 

 उन को इक बवाल सी लगा करती है ज़िन्दगी....


आग है के पानी , कतरा या समंदर

 हर अंदाज़ में खूब रंगीन हुआ करती है ज़िन्दगी....


जिया तुझको शिद्दत से ,महसूस किया ,जाना

समझने को फिर भी कम पड़ा करती है ज़िन्दगी....


तजरबा उनका,कहता महज इत्तिफ़ाक़ है 

मुझको तो खेल तमाशे सी लगा करती है ज़िन्दगी....

कविता घर गाँव औरतें


घर, गाँव, और औरतें 

############


औरतें करती हैं तब्दील 

मकानों को घरों में 

अपनी हँसी से

आँसुओं से 

बातों से 

कभी कभी खामोशी से भी

तो कभी लफ़्फ़ाज़ी से...


झर झर बहती रहती हैं 

झरने सी 

घुली रहती हैं फ़िज़ा में 

महकी महकी पवन सी,

निकल जाती हैं वक़्त के संग 

इस पार से उस पार...


पहचानी जाती हैं अक्सर

शहरों के नाम से,

मायके में 

ससुराल के 

और ससुराल में 

मायके के शहर से...


भूली रहती हैं 

ख़ुद के रोज़बरोज़ में  

बहोत सी गैर ज़रूरी बातें 

क्योंकि

उनके पास तो हुआ करती है 

जादुई ताक़त 

किसी भी जगह को 

अपना घर बना लेने की ...


औरतें ख़्वाब में भी देखती है 

अपने पुराने गांव 

पेड़ों की छाँव, 

सावन के झूले, 

सारे रिश्ते, 

हँसी ठिठोली 

भूलता नहीं है उनको अपना कोई भी घर 

इसलिये तो भिगोती रहती हैं जब तब 

आँखों की कोर...


ज़िन्दगी की जद्दोजहद में 

मसरूफ़ 

मर्द नहीं सोच पाते इतना

और बनवाते हैं मकान 

अपनी दुलारी बेटी 

अपनी प्यारी बहन के लिए 

लेकिन नहीं रख पाते 

कोई एक कोना

जो हो सिर्फ उनका 

क्या हुआ फ़िक्र करते हैं वे उनकी...


बुलातें है वे उन्हें 

तीज त्यौहारों पर 

खबर भी रखते हैं उनकी 

एहतिराम भी करते हैं 

मगर मेहमान की तरह 

भर देते हैं बैग उनके रुखसती पर 

रख देते हैं हथेलियों पर 

बेशुमार नोट भी..

पसीजते हुए 

इन काग़ज़ के चंद टुकड़ों के साथ 

गीली हो जाती है रूह औरत की 

अन्दर तक

एक बोझ का एहसास 

नहीं लौटने देता उन्हें जल्द जल्द 

इस वाले घर में...


खो जाती हैं फिर से ये औरतें 

नहीं मिलतीं ढूँढने पर भी 

अपने पुराने घर में 

अपने बालपन के गाँव में 

फ़िसल जाती हैं वे यूँ 

जैसे कोई किरकिरी दानेदार रेत 

किसी भींची हुई मुट्ठी से...

औरत की

(काट छांट मुदिता गर्ग 😊, और विनोद सर द्वारा साभार !)

लफ़्फ़ाज़ी=वचालता, 

ऐहतिराम=सम्मान, 

रोज़ ब रोज़ =दिनचर्या से आशय है, 

रुखसती=विदाई, 

मसरूफ=व्यस्त

बहुत उदास हूँ मैं

 


बहुत उदास हूँ मैं 

************

न जाने क्यों 

लगता है आजकल 

इधर से दृष्टि फेर ली है तुमने

और एक मैं हूं 

गहन उदासी और अवसाद की जद में

बेतहाशा

खिंचती चली जा रही हूं

जी चाहता है 

सारे बंधन तोड़ कर कहीं दूर भाग जाऊं

कोशिश भी की है कई बार

किन्तु आसान नहीं ना....

बहलाती हूं  

अपने मन को 

कहानियों कविताओं और रंगों में 

किंतु नाकामयाबी हाथ लगी हर बार...... 

कब से खबरें पढ़ना छोड़ दिया मैंने

लेकिन जैसे सारी उदास खबरें

तैर तैर कर 

मेरे आसपास इकट्ठी हो जाती हैं 

और मैं उस उदासी के भंवर में 

गोते लगाने लगती हूँ

कि तुम आओ और खींच लो मुझे बाहर


क्यों महसूस नहीं कर पा रही

यह पल पल बदलता 

खुशनुमा मौसम

 जी चाहता है 

चीख कर चीख कर बताऊं इस दुनिया को

 हां उदास ,बहुत उदास हूं मैं !!

आजकल ऐसे ऐसे लोग 

मुझे याद आने लगे हैं 

जिन्होंने कभी मुझे याद नहीं किया 

और ना याद करने का हक ही दिया..... 


मैं याचक तो नहीं थी

फिर भी आज 

याचना करती हूं

आ जाओ !!!

निकाल लो इस उदासी से बाहर मुझको ..

कर रही हूँ पल पल व्यतीत

इसी प्रतीक्षा में 

के तुम पुकार सुनोगे 

इससे पहले कि हार जाऊं मैं .....!!!

दिल दुखता है


दिल दुखता है 

########


ग़म नहीं इसका के वो छोड़ गया है मुझको

उसने हर बात छुपाई,इस बात पे दिल दुखता है


छोड़ दिया मैंने जहाँ सारा मोहब्बत में जिसकी

वो मेरे सिवा ,सारे जहाँ की खबर रखता है 


राह तकती हूँ मैं नादां बेसब्रों सी जिसकी

लोग कहते हैं कि अब उसका अलग रस्ता है 


कहता था वो कि बस मैं हूँ नज़र में उसकी

झूठ ये उसका कांच की किरचों की तरह चुभता है 


बदल लेना साथी फितरत ही रही थी उसकी

मुझको तो आज भी वो अपना सा ही लगता है


वो गया जबसे जिगर चाक हुआ है ऐसे 

अब कहाँ बनने सवरने में दिल लगता है 


आज ग़मगीन हूँ कल ठीक भी हो जाऊंगी 

घाव गहरा हो गर ,भरने में तो वक़्त लगता है

प्रीति मिश्रा

मन की मल्लिका


मन की मल्लिका 

*************


अपनी धुन में ही रहती हूँ, कुछ गुन गुन करती रहती हूँ। 

                    आँखें  मेरी  सब  बोल  रही 

                     मुस्कान राज़  है खोल  रही 

                     परवाह नहीं कुछ भी मुझको 

                     तुम चाहे मुझको जो समझो 

                       

ना ताज कोई ना तख़्त मेरा मन के सिंहासन पर बैठी हूँ। 

                     कुछ गुन गुन करती रहती हूँ।। 


                     मात्र हृदय  पुष्प अर्पण   हेतु 

                     नहीं इसके सिवा कोई    सेतु

                     निश्छल हूँ  और भोली  भाली 

                      निष्कपट भाव  मिलने वाली                

                      


    नभ तक विस्तृत मेरा आँचल,किन्तु धरती पर बहती हूँ। 

                  कुछ गुन गुन करती रहती हूँ।। 

                    


                     गर प्रेम    से  मुझे  पुकारोगे

                      इर्द गिर्द स्वयं के पा   लोगे

                     तनिक मिला तिरिस्कार अगर

                     दृढ़ हूँ चलने को अपनी डगर


  तन कोमल दिखता है किन्तु मन से फ़ौलादी लड़की हूँ। 

                     कुछ गुन गुन करती रहती हूँ।।

दीप से दीप जला

 थीम सृजन-दीप से दीप जला 

################


कुछ तुमसे सुनी जाए, कुछ तुम्हें सुनाया जाए

 अफ़साना मोहब्बत का,फिर से दोहराया जाए


ढोएं कब तक यूँ तन्हा गठरी ग़म की 

खोल दें दिल चलो कुछ बोझ घटाया जाए 


तग़ाफ़ुल ज़ख्मों का ,नासूर बना देता है

 दुआ - दवा करें मरहम भी लगाया जाए 


अपना चेहरा भी अनजान हुआ जाता है

आईना इक मेरे वास्ते लगाया जाए 


तुम चले जाओगे तो जान क्या रह पाएगी

खुद की साँसों के लिए तुमसे निभाया जाए


दाग दामन में औ' दिल में गिरहें काफी हैं 

सुलझा लें गांठों को ,दागों को मिटाया जाए 


हुआ एलान ये शहरे वफ़ा में कैसा

मिलने पे हुई पाबंदी,जश्न अकेले मनाया जाए


गर्द से हारे हैं सूरज चाँद और तारे 

दीप से दीप जला अंधेरों को मिटाया जाए

प्रीति मिश्रा


(सम्पादन के लिए मुदिता गर्ग का आभार)

कविता एक तस्वीर देखी है


एक तस्वीर देखी है.....

##########


पूनम की रात के उजले चाँद सी चमक देखी है

फूलों से आँखों के जुगनू ढँककर बैठी  है 

मैंने एक तस्वीर देखी है ....


घटाओं सी सुरमई 

ज़ुल्फ़ों में तितलियाँ, 

होठों की  नरमियाँ 

बयां करती है शोखियां 

दिल के तार छेड़ कर

जो अनजान हो गयी

 मैंने अल्हड़ शरीर एक लड़की देखी है.......


बहार कहूं तुझको या कहकशां कहूं

ज़मीं से  आसमान तक है तेरी अदा कहूं

मेरा सुकूँ छीनने वाली ऐ ज़ालिम दिलरुबा 

बंद आँखों के ख़्वाब सी तू हरदम दिखती रहती है

मैंने एक तस्वीर देखी है.......प्रीति मिश्रा

गीत

 स्वान्तः सुखाय

*************

किस्से कहती हूँ मैं गीत रचती हूं मैं

जो भी परिचित हैं मुझसे वो जानें सभी 

अपनी धुन में ही रमती विचरती हूं मैं

किस्से कहती हूं मैं गीत रचती हूँ मैं ...


लम्हा लम्हा मैं खुद से उलझती रही,

कभी उठती रही तो कभी गिरती रही 

मेरे अरमान औ' चाहतें भी मेरी

कोरे कागज पे स्याही बिखरती रही

जान कर भी मैं खुद से ही अनजान हूं

 इक पहेली के जैसे सुलझती हूँ मैं...


चाँद को माँगता एक बच्चा मिला

था बहादुर जो आशिक वो सच्चा मिला

शम्मा लेकर चला भीड़ से जो अलग

इन्कलाबी कहाँ फिर किसी से डरा

शोर उठता रहा ,शम्मा जलती रही

रोशनी से उसकी दमकती हूँ मैं

किस्से कहती हूं ...


रोने वाले अकेले रहे हैं यहाँ 

खुशनुमा महफिलों से सजा ये जहाँ 

आंगनों की ख़ुशी, घूँघटों में हँसी

देखा मैंने वही किया लफ़्ज़ों में बयां

आपको है नशा और मज़ा देखिये 

लड़खड़ाती हुई भी संभलती हूँ मैं...


प्रीति मिश्रा (२०२०)


(सम्पादन के लिए मुदिता गर्ग का आभार 🌹)

Saturday, December 12, 2020

ग़ज़ल

 चेहरे बुजुर्गों के किसी फूल से खिल जाते हैं

घर के बच्चे जब उनसे मिलने आते हैं.

सुना होगा यह सच कहते हुए लोगों को
बुढ़ापे में सब अपना बचपन ही तो दोहराते हैं.


दिल का अच्छा है मगर खफ़ा -ख़फ़ा सा रहता है
रुठे हुए उस शख्स को चलो मिलके सब मनाते हैं.


हार जाएंगे सन्नाटे जोअपनी पे आजाओ तुम,
चलो एक गीत तरन्नुम में गुनगुनाते हैं.


आप जो पूछेंगे बस मुस्कुरा के रह जाएंगे
बात दिल की किसी को हम कब बताते हैं.

कलम चलती ही नहीं कहने को कहानी अपनी
कैसे कहें हौसला नहीं ,दर्द से हम घबराते हैं.

अजीब बात है सब भूल गया कैसे मुझको
गुजरे जमाने के किस्से वो आज भी दोहराते हैं.

रिश्ते नाते दोस्ती वफ़ा रखिये संभाल कर
काँच से नाज़ुक हैं छूटे तो दरक जाते हैं.

Thursday, December 10, 2020

ठकुराइन

 


ठकुराइन 

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(कहानी के पात्र, स्थान काल्पनिक हैं. )

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 सुनयना के घर के बाहर बरात आ चुकी थीऔर उसके घर के अंदर क्लेश  मचा हुआ था. जनवासे में भावी वर को देखकर सब लोगों में खुसुर पुसुर शुरू हो गई थी. 

"कम से कम पैंतालीस वर्ष आयु तो होगी."

"अरे !पचास से कम होए तो हमारा नाम बदल देना."

"इनकी दूसरी पत्नी तो हमारे ननिहाल की थीं, बड़ी नेक औरत थी. पीलिया ने प्राण ले लिए. "

"ठाकुर तो बड़े नेक आदमी हैं इन्हें बच्ची से विवाह करने की क्या सूझी? "

"विनाशकाले विपरीत बुद्धि !"

ना चाहते हुए भी कानों में अनेक वाक्य शूल की तरह चुभने लगे थे. 

सुनयना के छोटे छोटे भाई भी अपनी बहन को घेर कर उदास हो कर बैठ गए थे. 

 उसकी मां द्वारचार की रस्म निभाने के लिए तैयार नहीं थी. वह रणचंडी का रूप धारण करके अपनी पुत्री को सीने से लगाकर बोली " मैं अपनी बेटी के साथ कुएं में कूद जाऊंगी किंतु उस बुड्ढे से अपनी बच्ची का ब्याह ना  होने दूंगी."

घर के अंदर की दशा को बाहर पहुंचते देर ना लगी और फिर प्रकट हुए पड़ोसी बिचौलिए जगेसर पंडित जो सुनयना का विवाह पड़ोस के गांव के ठाकुर वीरेंद्र प्रताप से करवा रहे थे. मां और बेटी का विलाप देखकर उनके पांव तले जमीन खिसक गई सोचने लगे कि "अगर ठाकुर की बारात वापस लौटी तो हमारे समाज में जो थू थू होगी वो अलग किंतु ठाकुर मुझे ना छोड़ेंगे." उन्होंने बेटी की मां को समझाने के उद्देश्य से कहा "एक बार मेरी बात सुन लो सुनयना की मां बाद में जो भी जी चाहे कर लेना."

" बताओ क्या कहना है? "लड़की की मां ने क्रोध से कहा.

" इतने गुस्से में तो तुम्हें कुछ समझ आएगा नहीं जरा  पास बैठो और तनिक मुझे बोलने दो तुम चुप रहना." पंडित जी  बोले "देखो भाभी आपके परिवार की हालत मुझसे छुपी हुई नहीं है दो बीघा जमीन में 7 प्राणियों का पेट पालना कितना कठिन है मैं जानता हूं.

" इसका मतलब यह तो नहीं कि हम अपनी लड़की को बेंच दें."सुनयना की मां रोने रोने को हो आई. 

"बेचना नहीं है, तुम्हारी लड़की उस घर में जाकर राज करने वाली है. मैंने माना कि वर की आयु अधिक है किंतु यह भी सोचो कि उसके पास ढाई सौ बीघा जमीन है. आलीशान महलनुमा घर है जो नौकर चाकरों  से भरा हुआ है. रोज वहां 50 नौकरों का खाना अलग से बनता है.  रिश्तेदारों के नाम पर एक बूढ़ी चाची और एक बिटिया है."वे धीरे से बोले "कल बिटिया ब्याह कर अपने घर चली जाएगी.फ़िर सब आप लोगों का ही तो है."

अंदर यह बातें चल ही रही थी कि बाहर से ठाकुर साहब ने एक बहुत बड़ी चांदी की परात में लड़की के लिए अनगिनत स्वर्णआभूषण भिजवा दिए थे.परात इतनी बड़ी थी कि दो-तीन लोग उसे उठाकर लाए थे ऊपर से लाल रंग के मखमल और गोटे से सजे हुए कपड़े को जब जगेसर पंडित ने हटाया, सुनयना की मां की आंखें स्वर्ण आभूषणों की चमक से झिलमिल करने लगी. रोती हुई स्त्री एक ही पल में हंसने लगी सुनयना के मलिन चेहरे पर भी प्रसन्नता दमकने लगी. जहां रोना-धोना मचा था कुछ पलों के अंदर ही हंसी ठठ्ठा होने लगा .सुनयना  एक एक आभूषण को उठाकर देखती और किसी स्वप्निल दुनिया में खोती जा रही थी.

जगेसर पंडित भी हैरान हो कर सोचने लगे " बताओ माया में कितनी शक्ति है?"

"मैंने माना कि माया के आगे एक  लड़की का बलिदान हो रहा है किंतु उसकी कुर्बानी व्यर्थ ना जाएगी."इस दीन  हीन परिवार के दिन ठाकुर साहब से संबंध जोड़ने के बाद फिर जाएंगे, क्योंकि ठाकुर अच्छे व्यापारी भी हैं. उन्हें हिसाब किताब करना अच्छी तरह आता है वे अपनी नववधू को प्रसन्न रखने के लिए कोई भी प्रयास ना छोड़ेंगे.'

कुछ ही देर में सप्तपदी हुई और प्रातः काल होते ही सुनयना डोली में बैठकर अपनी ससुराल  रवाना हो चली उसने घूंघट की ओट से अभी तक अपने पति का चेहरा नहीं देखा था, अलबत्ता वो  अपने तन पर सुशोभित गहनों को बार-बार छू कर देख रही थी. 

उसने पितृगृह में कभी कांच की चूड़ियाँ तक भी ना पहनी थीं. किसी ने कभी कोई उपहार नहीं दिया था. आज विधाता ने उसे ज़ेवरों से लाद दिया था. 

 उसका चेहरा दमकने लगा है. स्वर्णाभूषणों की चमक से. 

"पिताजी सही कहते थे अब भूखे पेट सोने के दिन गए."

तभी कहारों ने डोली नीचे रखी आगे की यात्रा एक सजी धजी मोटर कार में होनी थी. 

सुनयना के पास उसका छोटा भाई भी आकर बैठ गया, बोला "जिज्जी मैं भी आपके साथ चल रहा हूं. दो चार दिन बाद साथ में लौट आएँगे. "

सुनयना ने अपनी नज़रें दौड़ाईं, तभी एक भद्र पुरुष कार की ड्राइवर सीट के बगल में बैठ गए और चालक  से बोले "संभाल के चलना ठकुराइन को जरा भी कष्ट नहीं होना चाहिए."

यही थे ठाकुर वीरेंद्र प्रताप, सुनयना के पति. फ़िर बिना पीछे मुड़े हुए बोले "ठकुराइन ये हमारा सबसे प्रिय साथी है हमारा सखा, चालक, मुनीम, सब कुछ. आपको जिस चीज़ की आवश्यकता हो हीरामणि से कह सकती हैं."

पहली बार मोटर कार में बैठ कर सुनयना को उबकाई आने लगी जिसे हीरामणि  ने शीशे में देख लिया और गाड़ी रोक कर एक पुड़िया से सुगन्धित पान निकाल कर उसके आगे रख दिया "ठकुराइन ये पान चबाती हुई चलिए. तबीयत अच्छी महसूस होगी."

सुनयना का हाथ उसके हाथों से टकराया, ऐसा लगा ना जाने कब से इस स्पर्श को पहचानती है.उसकी नज़रें हीरामणि की ओर उठीं वो एक करीब अट्ठाइस तीस वर्ष का सुदर्शन  युवक था. जो उसकी ओर मित्रता के भाव से मुस्कुरा कर देख रहा था. 

हीरा से ये प्रथम परिचय था. 


ससुराल और सुनयना 

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सुनयना जब ससुराल पहुंची तो उसका स्वागत जिस वृद्ध महिला ने किया वे ठाकुर साहब की चाचीथीं . वे उन्हें चचिया  कहकर संबोधित करते थे.इन्होंने ही ठाकुर को पालपोस कर बड़ा किया था.ठाकुर की माँ का देहान्त हुआ तब वे मात्र दो वर्ष के थे. 

 चचिया का अपना एक बेटा था किन्तु बचपन से ही उसका मन पूजा पाठ में लगता था,  वो गृह त्याग कर मंदिर में भगवान भजन में लगा रहता था. लोग कहते थे उसको सिद्धि प्राप्त है. आने वाले समय का पूर्वानुमान हो जाता है बचपन से ही. इसीलिये गृहत्याग कर सन्यासी बन बैठा था. उसकी ज़िद के आगे किसी की ना चली.कभी कभी घर आता. माँ की वेदना समझता था वो तेजस्वी बालक. किन्तु संसार से मोह छोड़ चुका था.

सुनयना ने देखा चचिया के पास एक 12-13 वर्ष की बालिका खड़ी थी उसका चेहरा निस्तेज हो रहा था.वह अपनी नई मां को देखकर घबरा रही थी.चचिया  नववधू को सबसे पहले पूजा गृह में ले गईं,  फिर उसे विश्राम करने के लिए उसके कक्ष में ले आईं.चचिया का हृदय 16 वर्षीय सुनयना को देखकर द्रवित हो उठा. कहां 50 वर्षीय ठाकुर और यह फूल सी नई ठकुराइन. कैसे क्या होगा?  इसका जीवन कैसे चलेगा?  उनकी बुद्धि पर मानो ताला लग गया था. 

ठाकुर निकले होशियार !वे सुनयना के छोटे भाई को अपने साथ लाए थे, ताकि नववधू अपने को अकेला महसूस ना कर सके और उस पर दबाव भी बना रहे.

 मुनीम हीरामणि से कहकर घर के दो कमरे शानदार ढंग से सजवा दिए गए. जहां सुनयना के भाई को ठहरा दिया गया. अस्तबल में जाकर उसे अपनी प्रिय घोड़ी भी दिखाई और पूछा क्या घुड़सवारी सीखोगे? 

हाँ जीजाजी !क्या मुझे घुड़सवारी आ सकती है? 

इस उम्र में सब कुछ आ जाता है. ठाकुर बोले कल से ही हम ख़ुद तुम्हें लक्ष्मी की सवारी कराएंगे. 

क्या ये मुझे गिरा तो नहीं देगी? 

"नहीं बहुत सीखी पढ़ी हुई है. जहाँ तक मैं कहूं वहीं से लौट कर आ जाती है."

"लक्ष्मी जा!!नहर तक भैया को घुमा ला."


ना ना करते हुए उन्होंने बच्चे को घोड़ी पर बिठा दिया. 

"धीरे धीरे जाना"

घोड़ी ने हिनहिना कर मानो हामी भरी. थोड़ी देर में ही वो विशेश्वर को घुमा कर वापस ले आयी थी. 

 सुनयना दो-तीन दिन की थकी थी तो ससुराल में मौका  पाकर लंबी नींद सोई. चचिया ने उसके कमरे में खाना भिजवा दिया था. ऐसे नर्म बिस्तर, पानी के छिड़काव से ठंडी हुई छत, पंखा झलते हुए अनुचर उसके लिए सब कुछ  अप्रत्याशित था. देसी घी की महक से उसका कक्ष महक उठा था.उसने ऐसा भोजन कभी नहीं खाया था.

 

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ठाकुर सुनयना को ब्याह तो लाए थे किंतु उन्हें ग्रामीण बालकों का परिहास आज भी विचलित कर रहा था. कानों में वे शब्द आज भी गूँज रहे हैं."दद्दा हम भी देखें सुनयना जिज्जी जी के दूल्हे को."

"हे भगवान इनका तो आगे का एक दांत टूटा हुआ है." एक बोला था दूसरे ने कहा "जरा पूछो तो कैसे टूटा? " 

"गिर गए होंगे कहीं."

 तीसरा किशोर बोला "नहीं लगता है झड़ गया है."

 सारे के सारे लड़के हंस पड़े थे.  ऐसा अपमान उन्हें  कभी नहीं झेलना पड़ा था. किंतु वे भी क्या करें? उनका ये चौथा विवाह है.  पहली तीनों पत्नियां किसी न किसी बीमारी से उनका साथ छोड़ कर चलती बनीं. उनका धन भी उन्हें बचा नहीं सका. 

औलाद के नाम पर बस एक 12 वर्षीय पुत्री थी मीरा.  आज नहीं तो कल वो अपने घर चली जाएगी फिर इतना बड़ा राजपाट कौन देखेगा? एक पुत्र तो होना ही चाहिए. अब चौथी शादी उनकी हमउम्र स्त्री से तो होने से रही.   निर्धन परिवार का व्यक्ति ही अपनी कन्या देता.  किंतु गरीब आदमी के यहाँ एक बड़ी दिक्कत होती है. वे  अपने बच्चों का विवाह बड़ी कम उम्र में कर देते हैं ठाकुर के पास और कोई चारा नहीं था इसलिए उन्होंने सुनयना से विवाह के लिए हां कर दी.

उन्हें एक लालच था बस एक पुत्र हो जाता इस आंगन में बहारआ जाती.इस जायजाद को उसका वारिस मिल जाता.सुनयना के छोटे भाई को देखकर ही उनका जी ललचा गया था, इसीलिए अपने साथ में ले आये, ताकि घर में कुछ चहल-पहल मालूम हो सके.  ना जाने क्यों उन्हें पुत्र प्राप्ति की इतनी लालसा क्यों है? 


सुनयना ने हीरामणि के साथ पूरे घर का चक्कर लगाया तो उसके कोमल  पांव थक गए थे, दूसरी ओर झिझक भी हो रही थी हीरामणि से.

ठाकुर स्वयं झिझकते थेअपनी पुत्री और चचिया के सामने सुनयना से वार्तालाप करने में. इसलिये पहले ही हीरा को समझा दिया था. "कोठी का वैभव और खेत खलिहान बाग़ बगीचा सब अच्छी तरह से दिखाना."

"छोटी उम्र की वधू के मन से भय निकल जाए और वो अपने आप को इस घर परिवार का हिस्सा समझे ये बहुत आवश्यक है हीरा."

"जी सरकार!मैं समझता हूं. "हीरा ठाकुर की बुद्धिमत्ता का लोहा मान  गया था. उनको किसी को भी अपने वश में करने की कला आती थी.

ठाकुर की छत से खेतों का दृश्य बहुत सुंदर दिखता था घर के बाहर चबूतरे पर ट्रैक्टर खड़े थे. तभी उसका छोटा भाई दौड़ता हुआ आया और बोला "देखो जिज्जी उधर देखो वो ट्यूबवेल दिखाई दे रहा है हम वहां आज नहा कर आए हैं. "उसके चेहरे की खुशी देखकर सुनयना ने उसको अंक से लगा लिया तभी हीरामणि आ गए और बोले "ठकुराइन ठाकुर साहब ने खेत और बाग़  घुमाने के लिए कहा है."

उसने पूछा "आप कब चलना पसंद करेंगी?"

"खेत और बाग़ क्या मैं जा सकती हूं?"सुनयना ने प्रश्न किया.

हीरामणि-"हां क्यों नहीं? आप को सब पता होना चाहिए ठाकुर की आप अर्धांगिनी हैं."

सर पर चादर ओढ़ कर सुनयना ने जब बाहर जाने के लिए कदम बढ़ाए तो चचिया ने कहा "दुल्हन गुड़िया को भी साथ लेती जाओ." "गुड़िया को घर में आपके पास रहना चाहिए नहीं तो आप अकेली हो जाएंगी."चचिया  को 2 दिन पुरानी नववधू  के तेवर देखकर हैरानी हुई,  मन ही मन में कहा"इस बार ठाकुर से ग़लती हो गई, नयी ठकुराइनआम लड़कियों जैसी नहीं है."

घूमते फ़िरते खेतों से मूली,गाजर उखाड़कर खाते हुए सुनयना भूल गई कि वो ब्याह कर आयी है. उसकी यह छवि हीरा के मन में बस गई वैसे ही जैसे कोई अपने हृदय में देवी को स्थापित कर लेता है ये छोटी सी सुकुमारी उसके मन में विराजमान हो गई थी.


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ठकुराइन के कर्तव्य

ठाकुरसाहब ने कभी भी सुनयना को नहीं जताया कि वे उसे एक सन्तान प्राप्ति के लिए लाये हैं. किन्तु सुनयना को ये बात मालूम थी. उसने अपनी सौतेली बेटी गुड़िया की आँखों में चिन्ता भी देखी थी.साथ ही ईर्ष्या भी. अगर कोई और रिश्ता होता तो  वो उसे आगे बढ़ कर गले से लगा लेती किन्तु ना चाहते हुए भी ये एक कड़वा रिश्ता था जो ठीक नहीं हो सकता था.

उसे गुड़िया को देख अपनी औकात याद आ जाती थी. कहीं ना कहीं वो अपने को उस अपराध का दोषी मानती जो उसने नहीं किया था बल्कि तक़दीर का खेल था.गुड़िया को अपनी मृत माँ का चेहरा नज़र आता जिसे वह चाह कर भी ना भुला पाती थी. इसलिये सुनयना उसे बिल्कुल ना भाती. सुनयना ने अपना सारा ध्यान ठाकुर साहब की सेवा में लगा दिया था. वो सोचती थी कि माना यह साथ मजबूरी वश हुआ है किन्तु भूखे पेट सोने और जिल्लतों के जीवन से लाख गुना अच्छा है.

पूरी तन्मयता से वो घर बाहर की जिम्मेदारी उठाने को हरदम तैयार रहती.किन्तु वो माँ नहीं बन पा रही थी. इस बात का दुःख था उसे.उसने हीरामणि को सन्देशा भिजवाया हनुमान जी की मठिया पर चलेंगे. जेठ जी से मिलने, सुना है सिद्ध पुरुष हैं. उनका आशीर्वाद लेना चाहती हूं.

हीरामणि और सुनयना जब हनुमान जी की मठिया पहुंचे तो वहाँ एक गौरवर्ण वृद्ध व्यक्ति जो कि भगवे वस्त्र धारण किये हुए था. आँखे मूंदे किसी ध्यान में खोया हुआ था.हीरामणि ने उसे इशारे से चुप रहने को कहा. बालिका सुनयना चुपचाप मंदिर की  दरी पर बैठ गई. वो सोच रही थी क्या बात करूंगी?

उसने कुछ सोचा भी नहीं था. बस मन में एक इच्छा थी शायद हनुमान जी का आशीर्वाद प्राप्त हो जाए.

अचानक उस तपस्वी वेशधारी ने अपनी आँखें खोलीं औरअपने आसन को उठाते हुए पीछे की ओर मुड़े.उसकी प्रथम दृष्टि सुनयना पर पड़ी तो गम्भीर स्वर में उन्होंने कहा "प्राचीन काल में एक रानी थी. एक बार रानी ने अपनी परिचारिका से कहा मुझे भय प्रतीत होता है कि मेरे कोई सन्तान नहीं है, तब परिचरिका बोली जिनमें राजलक्षण होते हैं वहाँआसानी से सन्तान नहीं होती. ज्यादा बच्चे होना दरिद्ररता की निशानी है."इतना कह कर वो हीरामणि की ओर मुड़े."अपनी सखी से कहना चिन्ता ना करें. उनका जन्म किन्ही विशेष उद्देश्यपूर्ति के लिए हुआ है."

तपस्वी ने सुनयना से कहा "दीर्घायु भव यशस्वी भव."

और कुछ पूछना है?

"जी नहीं. चचिया आपको याद करती हैं."

"माँ हैं उनकी ममता को समझता हूं."

हीरा और सुनयना के सम्बन्ध को एक नया नाम मिल गया था. "सखी!"हीरा मन ही मन बुदबुदाया था.

ठकुराइन उसकी सखी ही होती जा रही हैं. उसने खुद भी एहसास किया है.

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ठकुराइन की मनः स्थिति


आने वाले  वर्ष पंख लगा कर उड़ गए. 

सुनयना को ठाकुर साहब के घर के भीतर और बाहर का हिसाब समझ में आ गया. कुछ नहीं समझ में आया था तो अपने से तीन गुनी उम्र का पति. इसे देख कर उसे अपने पिता चाचा और ताऊ की याद आती थी.वैवाहिक जीवन में ना आनंद ही था ना प्रेम.रिश्ता समय के साथ आगे बढ़ता जा रहा था दो समानांतर रेखाओं की तरह जो दिखने में तो साथ-साथ लगती हैं पर कभी नहीं मिलती हैं.

• सुनयना को उसकी माँ ने एक बात समझायी थी यदि इस घर में राज करना है तो गुड़िया के बड़े होने की प्रतीक्षा करनी होगी,  उसे एक अच्छे घर में ब्याहना होगा और जितनी जल्दी हो सके तुम्हारी अपनी संतान हो जानी चाहिए ताकि ठाकुर की कृपा तुम पर बना रहे. 

यह सब सुनने के बाद उसका मन और उचाट हो गया.

"इस तरह की सीख मुझे मत दो माँ."

उसने माँ से कहा कि "मैं तो नासमझ थी जब मेरा विवाह हुआ किन्तु अब पिताजी और पड़ोसी जगेसर पंडित पर बहुत क्रोध आता है, मेरा बस चलेगा तो मैं उन दोनों से इस जीवन में कभी भी बात नहीं करुँगी."

उसकी माँ आश्चर्य से अपनी बेटी का मुहँ देख रही थी. 


सुनयना से ठकुराइन तक की यात्रा बहुत ही पीड़ादायक रही है. 

न जाने क्यों अक्सर वो प्रेम के विषय में सोचने लगी है. 

ये प्रेम क्या होता है उसने नहीं जाना. 

उसका पति सभ्य है किन्तु वृद्ध है, इस कारण से क्या वो प्रेम नहीं करती? 

उसने बहुत सोचने के बाद निष्कर्ष निकाला है कि बात कुछ और ही है. 

प्रेम के लिए आवश्यक है समानता या आर्थिक आत्मनिर्भरता, एक ऐसा वातावरण जहाँ हलके फुल्के क्षण हो, हास्य हो रूठना मनाना हो.किसी बात पर झगड़े हों. 

ठाकुर के साथ ऐसा कुछ नहीं है.

उसे हर वक्त यहाँ महसूस होता है उसके ऊपर एहसान किये जा रहे हैं.अब उसके भाई पर भी. वो एक तरह की पराधीनता में घिरी हुई है.

वो ठाकुर की चौथी पत्नी है. एक पल भी यह बात भूल नहीं पाती है. 

उसका बस चले तो ये बेड़ियाँ तोड़ कर वो भाग जाए. 

वो देखना चाहती है क्या अपने बूते पर ये जीवन बसर किया जा सकता है?

फ़िर ख़्याल आता है बाहर की दुनिया का अनुभव भी कुछ सही ना हो. उसके भीतर नैसर्गिक लालसा उत्पन्न हो रही है.कुछ करने की, किसी की मदद करने की भी. 

ठकुराइन को अनुभव की भूख लग गई थी.किसी ने सच ही कहा है "जब मनुष्य के पेट में अन्न पड़ जाए सर पर छत हो और भविष्य के प्रति आश्वस्त मन हो तो परोपकार  करने के विचार जन्म लेना शुरू कर देते हैं."

ठकुराइन के साथ भी ऐसा ही हुआ था.

ठकुराइन की तड़प बढ़ती जा रही थी. उसे अपने जीवन का कोई उद्देश्य नहीं दिख रहा था. जब माँ के घर थी, घर में सारे कामकाज में माँ का हाथ बंटाती थी. थक कर मीठी नींद सो जाती थी. यहाँ का जीवन सुस्त था.अकेलेपन से भरा हुआ जीवन. 

गुड़िया पढ़ने चली जाती है. घर में होती भी है तो भी ऊपर कमरे में नहीं आती, उन दोनों के बीच एक दूरी है जो कब मिटेगी नहीं मालूम.वो अपनी दादी के पास ही रहती है.

इतना बड़ा घर काटने को दौड़ता है. उसके छोटे भाई का कमरा अवश्य ही ऊपर है किन्तु वो सुबह से ही उठकर गायब हो जाता है. गाँव का हर लड़का उससे मित्रता करना चाहता है. 

उसके रंग ढंग बड़ी तेजी से बदल रहे हैं. ऐसा लगता है जैसे यहीं जन्मा हो. ऐसा ही रहा तो उसे बिगड़ते देर नहीं लगेगी. 

 आँख खुलते ही ठाकुर साहब का दरबार सजता है, जो रात्रि में ही विसर्जित होता है. दोपहर में बस खाना खाने के लिए अन्दर आते हैं. दिन भर चाटुकारों की महफ़िल सजी रहती है. चाय से शुरुआत होती है और हुक्के की चिलम से सभा की समाप्ति होती है.

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 उस रोज़ हीरामणि बड़ी प्रसन्नता के साथ  ठाकुर के घर आया उसके हाथ में मिठाई का एक दोना था, जिसमें बूंदी के लड्डू रखे थे. वह सीधा ठाकुर के कमरे में गया और उन्हें बताया कि उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है.ठाकुर ने अपने गले से सोने की चेन उतारकर उपहार के रूप में उसे दे दी  और बोले "हमारी ओर से बालक को पहना देना. 

ठकुराइन को भी जाकर मिठाई खिला दो."

हीरा हिचक रहा था.वे बोले " इसमें संकोच की क्या बात है?  हम कह रहे हैं जाओ." 

हीरामणि से पुत्र जन्म का समाचार सुनकर ना जाने क्यों ठकुराइन को घबराहट सी हुई. उसे रत्ती भर प्रसन्नता ना हुई. कहीं ना कहीं बुरा लगा ये ईर्ष्या क्यों कर हुई इसका उत्तर ठकुराइन के पास नहीं है.

पता नहीं ये आदमी उसे अपनी ओर क्यों आकर्षित करता प्रतीत होता है. जब से पुत्र हुआ है वो हीरा से यथा संभव बचती फ़िरती है.पर दिन भर में एक दो मुलाकातें हो ही जाती हैं.जो उसके अन्दर लालसा उत्पन्न करती हैं.वो हीरामणि में अपना मित्र ढूंढने लगती है.कितनी भाग्यवान होगी इनकी पत्नी वो उन दोनों के प्रेम के काल्पनिक चित्र गढ़ती है. कहीं ना कहीं एक टीस उठती है अपरिचित सी.

वो चाहती है जब खेतों पर चक्कर लगाना हो या बाग में अमियाँ का बंटवारा हो तो वो भी हीरामणि के साथ जाए.

किसी पुरुष से उसकी मित्रता सही है? उसकी बुद्धि समझ नहीं पाती है. इधर कुछ दिनों से ठाकुर की तबीयत ठीक नहीं रहती है इसलिये रात में भी कभी कभी हीरामणि यहीं रुकने लगा है. अपने कमरे में आराम करते हुए ही ठाकुर व्यापार का सारा हिसाब देखते हैं. 

ऐसे में उसकी स्थिति और अजीब हो जाती है. वो काफ़ी देर छत पर बैठी रहती है.ऐसी परिस्थिति में वो झेंप जाती है. कब हीरामणि उनके कमरे से निकले तब वो कक्ष में प्रवेश करे . 

उस दिन हीरामणि की पत्नी आयी थी और शिकायत कर  रही थी कि हीरा उसके साथ समय नहीं बिताता है. 

चचिया  ने कहा "अगर ऐसा है तो तुम भी यहीं नीचे एक कमरे में अपने पुत्र को लेकर आ जाओ."

अजीब हैं इस घर के लोग जो भी आये उसके लिए एक कमरा खोल देते हैं.चचिया के वक्तव्य पर ठकुराइन को हैरानी होती है. 

ठाकुर के शौक भी बड़े अलग हैं. सुना है रेस में पैसे लगवाते हैंऔर दूसरी ओर पैसे कमाने के लिए कोई भी धंधा नहीं छोड़ते हैं. आधे से ज़्यादा गाँव वालों को ब्याज पर पैसा दे रखा है. 

कुछ दिन पहले किसी काम से तिजोरी खोली तो वो दंग रह गई थी. छोटी छोटी पोटलियों में ना जाने कितने लोगों के ज़ेवर रखे हुए हैं. 

उसे देख कर ही वितृष्णा होने लगी है.उसे ठाकुर के सौम्य चेहरे के पीछे कोई कठोर व्यक्ति छुपा दिखने लगा. चाह कर भी उस कठोरता को वो नज़रअंदाज़ नहीं कर पाई.

उस रोज़ ठाकुर शहर से घर आये उनका रूप बदला हुआ था. उन्होंने एक नकली दाँत लगवा लिया है. अब वे पहले से बेहतर दिखने लगे हैं.युवा सहचरी को पाकर बालों को भी रंग लिया है.

हीरामणि की पत्नी जब से नीचे के कमरे में रहने आयी, ठाकुर के घर के नौकरों की मौज़ हो गई. एक तो वो सुन्दर थी दूसरे चंचल भी. 

निकम्मे मजदूर उसके चारों ओर घूमने लगे, और ठकुराइन के कानों में नित नयी बातें पड़ने लगीं.नीचे के हिस्से में अच्छी राजनीति हो रही है. 

गुड़िया पर भी वो बहुत स्नेह बरसाने लगी. अब गुड़िया हर जगह हीरामणि की पत्नी को ही ले जाने लगी है.

गुड़िया और उसका प्रेमी गिरीश

**************

कल विशेश्वर ने बताया कि "गुड़िया से बगल के गाँव का लड़का रोज़ उसे कॉलेज से घर तक छोड़ने आता है."

"लड़का ब्राम्हणों के परिवार से है. देखने में अच्छा है, किन्तु साधारण परिवार है. गुड़िया का ब्याह हो भी गया तो निबाह ना हो पाएगा." विशेश्वर ने कहा.

ठकुराइन के कान खड़े हो गए थे. 

"हे भगवान !अगर गुड़िया के साथ कुछ ऊँच नीच हो गई तो कोठी की बहुत बदनामी होगी."

इसलिये कुछ दिनों से वो गुड़िया को कॉलेज से घर आने के लिए कार भेजने लगी थीं. 

गुड़िया इस बात से ठकुराइन से और ज्यादा चिढ़ गई थी. किन्तु कुछ बोल ना पायी थी.

उसने अपने प्रेमी गिरीश  से कॉलेज में छुप छुप कर मिलना जारी रखा. ये प्रेम महज आकर्षण वाला प्रेम ना था. दोनों एक सी रूचि रखते थे और सुख दुःख के संगी बनना चाहते थे.

गुड़िया को उसका साथ भाने लगा था. हाथ में हाथ लेकर प्रेमी युगल भविष्य के सपने देखने लगा था.

गुड़िया अक्सर स्वप्न देखती कि वो गिरीश के लिए खाना बना  रही है. कभी अपने कमरे को बंद कर वो माँ के बक्से से साड़ी लपेट कर पहन लेती थी.प्रेम की रंगत उसको लुभावना और सलोना बना रही थी.

गिरीश को पता था कि उन दोनों के बीच जाति और रहन सहन की असमानता बाधा बन कर खड़ी होगी इसलिये वह एक एक क़दम फूँक फूँक कर रख रहा था. देर शाम तक कॉलेज की लाइब्रेरी में बैठना उसकी आदत में शामिल हो गया था.स्नातक होते ही वह उच्च शिक्षा के लिए बड़े शहर चला गया और उसने जी तोड़ मेहनत की परिणाम स्वरुप उसका चयन बैंक की नौकरी में हो गया था.

उनके स्वपनों को मानो पंख लग गए थे.गुड़िया स्वयं भी पढ़ाई करके किसी नौकरी में लग जाना चाहती थी. पिता के घर उसका कोई मान सम्मान नहीं था. बस यहाँ वो अपने दिन काट रही थी.

आज दोनों बेहद प्रसन्न थे. गिरीश गुड़िया को अपनी माँ से मिलाने ले  जा रहा था कि रास्ते में ठकुराइन ने उन्हें एक साथ देख लिया. वो शहर किसी कार्य के सिलसिले में आई थी.


साल ख़त्म होते होते ही एक अच्छा सा घर वर देख कर ठाकुर साहब  ने गुड़िया के हाथ पीले कर दिए. 

कुछ दिन विवाहोत्सव की रौनक रही किन्तु दोबारा घर सूना हो गया था. 

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सारे काम काज ख़त्म कर के जब ठकुराइन ऊपर जाने के लिए जा रही थी कि उसने हीरामणि को एक चारपाई पर दर्द में तड़पते देखा. 

वो उसके पास गई और पूछा "क्या हुआ?"

वो बोला "मेरी नाभि हट गई है. बचपन से ही ऐसा हो जाता है. दबा देने से ठीक भी हो जाती है."उसने दर्द से तड़पते हुए कहा  

ठकुराइन उसकी ओर बढ़ रही थी पर संकोच से पीछे हो गई और बोली 

"वैद्य जी को बुलाती हूं. किसी को भेजती हूं."तभी हीरा की जोर से कराह निकली और वो उसकी चारपाई के पास अनजाने ही पहुँच गई. बहुत दर्द है क्या?मुझे दिखाइए.

ठकुराइन इतना कह कर आगे बढ़ी कि पीछे से हीरामणि की पत्नी आ गई. उसे देख वो सकुचा गई बोली आप इनको देखिये. लता ने ठकुराइन को घूर कर देखा ठकुराइन की नज़र कहीं और थी. वो चेहरे के हाव भाव पढ़ नहीं सकी.

उस रोज़ हीरा और उसकी  पत्नी पहली बार जोर जोर से लड़ रहे थे. हीरामणि दर्द और गुस्से से बेहाल था. उनकी लड़ाई का शोर ऊपर तक आ रहा था.

झगड़ा किसी तरह निबट ही गया होगा. वो ऊपर अपने कमरे में आ गई थी."क्या बेकार का तमाशा पाल लिया है चचिया ने."ठकुराइन ने सोचा. 

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इसी बीच सरकार ने नया नियम पास किया है अब कोई भी व्यक्ति ब्याज पर पैसे उधार नहीं दे पाएगा.ये ज़ेवर  गिरवी रखना भी अवैध घोषित कर दिया गया है. जिन लोगों ने क़र्ज़ ले रखा है वो सब माफ़. 

ठाकुर की कोठी शोक में डूब गई.गाँव के दुर्बल आय वर्ग के लोगों ने चैन की सांस ली. 

इसी बीच गुड़िया ससुराल से एक महीने के लिए वापस आयी. उसने हीरामणि की पत्नी के कमरे में बैठ कर अपने पति को प्रेमपत्र लिखा. विशेश्वर को पत्र देकर कहा "मामा इसे डाकखाने में टिकट लगा कर पोस्ट कर दीजिएगा."

गुड़िया और विशेश्वर हमउम्र थे किन्तु  गुड़िया उसे मामा ही पुकारती थी. 

विशेश्वर घर से निकल रहा था कि ठाकुर साहब की नज़र उस पर पड़ गई और उन्होंने गुड़िया का पत्र अपने कब्जे में कर लिया. 

रात्रि में ठकुराइन ने तकिये के नीचे खुला लिफ़ाफ़ा देखा तो अचम्भित रह गई. 

ठाकुर साहब बोले "तुम्हारे भले के लिए ही पढ़ रहा हूं कहीं बेटी  दामाद की नज़र हमारी जायदाद पर तो नहीं है. "

ठकुराइन सोचने लगी "कैसी मानसिकता के हैं ये अमीर लोग अपनी बेटी दामाद  पर ही भरोसा नहीं है."

वो कुछ ना बोली पर उसका जी चाह रहा था कि कहीं दूर एकांत में चली जाए. जहाँ इनमें से किसी की भी शक्ल उसे ना देखनी पड़े. 


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उस दिन ठकुराइन अपने पति से बोली "मैं कुछ दिनों के लिए अपनी माँ के घर जाना चाहती हूं."

"ठीक है. मैं किसी ड्राइवर का इंतज़ाम करता हूं."

ठकुराइन पूरे तीन वर्ष बाद अपने घर जा रही है. माँअक्सर आकर उससे मिल जाती हैं पर रूकती नहीं हैं. 

अब हीरामणि के यहाँ पुत्र जन्म ने उसके मन में और भी डर पैदा कर दिया है.इतने वर्ष हो गए पर उसकी अपनी कोई सन्तान नहीं हुई.  उसे लगता है वो ठाकुर के किसी काम की नहीं,  फिर वह वहां क्यों है? ये प्रश्न उसे खाए जाता है. 

 सुनयना जब घर के पास पहुंची तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि ये उसी का घर है. उसका पुराना टूटा फूटा मकान एक सुंदर पक्के घर में तब्दील हो चुका था. अंदर से छोटे भाई बहनों के हंसने की आवाज आ रही थी.

 मां सुनयना को देखकर बहुत खुश हुई और उसे अपने हृदय से लगा लिया. 

"मां तुमने बताया नहीं यह घर कब बनवाया?" 

"अब पानी वानी पियेगी या आते ही प्रश्न शुरू कर दिए?" मां ने लाड दिखाते हुए कहा.

" मेरा मतलब है माँ इतने पैसे कहां से आए? "

 मां बगलें झांकने लगी थी. 

"ठाकुर साहब ने मदद की है? "सुनयना  बोली 

 "बता तो दिया होता छुपाने की क्या बात थी?"

 " हम लोग तो बहुत मना कर रहे थे किंतु ठाकुर ना माने कहने लगे अब आप हमारे रिश्तेदार हुए. आपकी तकलीफ हमारी भी तकलीफ है. मां बोली "वैसे ठाकुर  बहुत नेक आदमी है."

 "मां मैं चाहती हूं कि आप लोग विशेश्वर को यहीं  वापस बुला लें, ताकि वो अपने पैरों पर खड़ा हो सके.कुलदीपक कोअपना घर उजियारा करना चाहिए. बस यही कहने मैं आई थी.अब मैं चलती हूं."

ठकुराइन चाह कर भी अपनी कटुता छिपा ना पायी थी. 

 मां बोली "ठीक है बेटा वापस बुला लेंगे लेकिन तुम रूकती तो अच्छा लगता.

"नहीं वहां घर पर भी लोग अकेले हैं और हां मैंने आपसे कहा है.यह बात बाहर नहीं आनी चाहिए.ना ठाकुर साहब को पता चले ना ही विशेश्वर को. "

सुनयना वापस लौटते हुए पहले से ज़्यादा दुःखी थी आख़िर कैसे हैं उसके माता पिता,  इतने लालची सिर्फ़ अपना भला देखते हैं ये सब. उसने सोचा था वो अपने घर जाकर रहेगी पर वहाँ भी ठाकुर साहब की कृपा बरस रही है. 

 दो-चार दिनों में विशेश्वर को भी पता चल गया कि उसे  वापस अपने घर जाना पड़ेगा वो घर वापस जाने के लिए तैयार ना था उसे इस घर के ऐशो आराम भा गए थे. सो उसने सुनयना के पैर पकड़ लिये जिज्जी मुझे गाँव मत भेजो. तुम जैसा कहोगी वैसे ही करूँगा. विशेश्वर ने अपना वचन निभाया भी. बाद में सारी उम्र अपनी बहन और  और जीजाजी की सेवा की. 


"क्या हुआ दुल्हिन? परेशान हो."चाची माँ  ने ठकुराइन से  कहा. 

हाँ !

चाची माँ-"मुझे बताओ शायद कुछ मदद कर पाऊं."

ठकुराइन-" इस जीवन से ऊब होने लगी है."

चाची माँ-""किन्तु मनुष्य का जीवन तो सर्वश्रेष्ठ कहा गया है.शास्त्रों में लिखा है. "

"किसी पुरुष ने लिखा होगा. यदि स्त्री लिखती तो ऐसा ना लिखती."ठकुराइन बोली. 

"स्त्रियां जब तक हर छोटी बड़ी बात के लिए, अपने सुख के लिए पुरुषों की ओर ताकेंगी ऐसा ही होगा."चाची माँ  बोलीं. जीवन सदैव आगे बढ़ने का नाम है. स्त्रियाँ बार बार विराम ले लेती हैं. यही ग़लती करती आयी हैं.जब तक सुधार नहीं करेंगी दुःखी होती रहेंगी.कभी पिता को दोष देती हैं कभी पति को लेकर परेशान होती हैं."

"स्त्री के जीवन का उद्देश्य खाली विवाहऔर   सन्तानोत्त्पत्ति नहीं है.जिस दिन ये बात समझ लेंगी औरतें, उनके जीवन में सुख अपने आप आ जाएगा. "

ठकुराइन समझ गई उसे ही समझा रही हैं. 

"मुझे पता है क्या लगता है?" ठकुरानी कुछ पल के लिए रुक गई 


हाँ बेटा!बताओ. 

"मैं सोचती हूं जैसा मेरे साथ हुआ ऐसा किसी के साथ ना हो. विवाह के नाम पर धोखा था ये.सिर्फ़ मैंने ही नहीं ठाकुर साहब ने भी धोखा खाया है."

"तुम साहसी हो, साथ ही सच्ची भी हो."चाची माँ  ने कहा. 

"हाँ मुझे झूठ और बनावट पसन्द नहीं है."सुनयना बोली. 

चाची माँ  ने कहा "मैं सोचती थी काश मेरे एक बेटी होती, पर अब सोचती हूं अगर बेटी होती तो तुम्हारे जैसी होनी चाहिए थी. "

"आज से मैं आपको माँ कहूँगी.आपको बेटी मिल जाएगी और मुझे माँ. "

इतने वर्षों में पहली बार ठकुराइन ने चचिया  को आदर से देखा था. 

हम लोग मिलकर स्त्रियों के लिए कुछ करते हैं. वे बोलीं. 

ठकुराइन को लगा चचिया ने उसके मुहँ की बात छीन ली हो. 


चचिया ने कहा "कल ही हीरामणि से कहकर नाउन से अपने घर में कीर्तन का न्योता पूरे गाँव में भिजवा देंगे."

ठकुराइन बोली "सभी स्त्रियों को न्योता दे देते हैं. देखते हैं वे कुछ करना चाहती हैं या नहीं."

उसने चाची माँ को अपने प्रस्ताव की  रूपरेखा समझाई  "सबसे पहले संगीत की कक्षा प्रारम्भ करते हैं. फ़िर अगले महीने पड़ोस के गाँव की स्त्रियों को जमा करके एक साथ भजन संध्या  का आयोजन कर लेंगे."

"लड़कियों के लिए प्रतियोगिता भी रख देंगे."

चाची माँ  बोलीं "इस बार नौटंकी वालों का पत्ता साफ़ कर रही हो."

"नहीं नौटंकी वाले तो पूरे महीने के लिए आते हैं.हमारा तो बस एक रात्रि जागरण या फ़िर कुछ घंटे का कीर्तन होगा."

ठकुराइन ने लड़कियों की टोली को प्रोत्साहित करने के लिए पूरे 1 हफ्ते तक उनके जलपान की व्यवस्था की ताकि  उनकी दिलचस्पी यहाँ आने में बनी रहे. घर में ही हलवाई लगा कर पकवान बनवाए. 

एक महीना बीतते बीतते ठकुराइन ने आसपास के कई गाँवो में सम्पर्क साध लिया था. 

ठाकुर साहब ने उसका उत्साह देखकर हीरामणि को ठकुराइन की मदद के लिए नियुक्त कर दिया था. 

हीरामणि वाकपटु था, उसकी वज़ह से स्त्रियों की अच्छी भीड़ जमा हो रही थी. 

उसके साथ घूम घूम कर ठकुराइन ने  सभी स्त्रियों के हुनर को ध्यान में रखते हुए अपने गाँव में एक बड़ी सामुदायिक योजना चलाई. जहाँ से स्त्रियाँ छपाई किये हुए कपड़े और धागे ले जाएं, और उन पर कढ़ाई करने के बाद अपनी मेहनत का उचित मूल्य प्राप्त कर सकती थीं. 

लता का विरोध 

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सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था कि उस दिन हीरामणि की स्त्री ठाकुर के घर के आँगन में चचिया से जोर जोर से लड़ाई करने लगी. 

उसका कहना था कि हीरा अब घर के लिए बिलकुल समय नहीं देता है वो छोटे बच्चे को लेकर बहुत परेशान है. 

"हीरा को मैं अच्छी नहीं लगती इसलिये वो अपना बच्चा संभाले और मैं अपने घर जा रही हूं."

तभी शोर सुनकर ठकुराइन बाहर आ गई  "तुम भी हमारे साथ काम क्यों नहीं करती हो? "

"ना ही मैं आपकी तरह खाली हूं, और ना ही गाँव गाँव किसी पर पुरुष के साथ घूमना पसन्द करती हूं."

ठकुराइन ने सुना तो उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. इतने में हीरामणि आ गए और अपनी पत्नी को घसीटते हुए घर से बाहर ले जाने लगे . 

किन्तु वो जाते जाते बोली "मेरा मुंह कोई भी बंद नहीं करा पाएगा."

बड़े लोगों की करतूतें मैं नहीं सहने वाली हूं. ठकुराइन !मेरा पति तुम्हारे जादू में गिरफ़्तार है. उसे छोड़ दो."

हीरा की पत्नी के जाने के बाद सुनयना को लगा वो चक्कर खाकर गिर जाएगी. एक पल में ही सारे स्वप्न चकनाचूर कर गई थी ये औरत. घर में कितने नौकरों ने सुना होगा. अब पूरे गाँव में बातें बनेंगी. 

हीरामणि अगले कई दिनों तक कमरे से नहीं निकला.

ना ही ठकुराइन ही नीचे आयी. फ़िरएक सुबह जब हीरामणि का पुत्र रो  रहा था तब उसकी पत्नी को चारों ओर  खोजा गया. वो कहीं भी नहीं मिली. 

कहाँ जा सकती है ताला बंद था कोठी में. 

बाहर नहीं निकल सकती. 

किसी ने कहा छत का जीने का दरवाजे को देखो. 

वाकई बड़ी हिम्मती औरत थी. छत से रस्सी की सहायता से नीचे उतर गई थी. 

"अवश्य ही कोई साथी भी होगा "

लोग तरह तरह की बातें कर रहे थे. हीरामणि का दिमाग़ सुन्न हो चुका था.

 उधर चारों ओर ठाकुर के आदमियों ने हीरामणि की पत्नी की खोज शुरू कर दी और जब असफलता हाथ लगी तो पुलिस स्टेशन में जाकर उसके खोने की रिपोर्ट लिखवा दी. करीब एक हफ्ते बाद वह अपने प्रेमी के साथ स्वयं थाने में उपस्थित हो गयी थी. 

 थानेदार ने जब दोनों को  हड़काना चाहा तो वह बोली-"अगर आप लोग मुझे वापस भेजेंगे तो मैं फिर से भाग जाऊंगी. मैंने दूसरा ब्याह कर लिया है."

थानेदार ने पूछा "तुझे क्या ज़रूरत पड़ी कि अच्छे भले पति और बच्चे को छोड़ दिया."

वो बोली "दरोगा जी मैंने ख़ुशी से अपने पति को नहीं छोड़ा है. बस मैं उसके साथ ख़ुश नहीं थी.मैं ना ख़ुद को और ना उन्हें धोखे में रखना चाहती थी."

"लेकिन भागने की क्या ज़रूरत थी?"

"कोई मुझे बता कर आने देता क्या?मेरे माता पिता, ठाकुर, ठकुराइन, ये समाज सब मेरे विरोध में खड़े हो जाते."

"ज़्यादा मुँह ना खुलवाइये दरोगा जी!किसी के लिए भी अच्छा नहीं रहेगा. अब वो दिन गए जब ठाकुरों की कोठी में ग़ुलाम बन के भी लोग अपनी इज़्ज़त को ढांपे रहते थे."


वो बोली "लाख़ देश आज़ाद हुआ हो, अब भी आख़िरकार आप के थाने में उपस्थित होना ही पड़ा है."

हीरामणि को बुलाया गया तो उसकी स्त्री ने उसकी ओर से मुहँ फ़ेर लिया. 

अजीब मुसीबत थी.दरोगा जी का सिर घूम गया था. थाने में ऐसा पहला केस था. 

हीरामणि ने कहा "थानेदार साहब मेरा उससे तभी तक नाता था, जब तक वो मेरी पत्नी थी यदि उसने मुझे अपना पति मानने से ही इन्कार कर दिया है तो उसे जहाँ जिसके साथ जाना है जाने दिया जाए.मुझे कोई मतलब नहीं है. "

दरअसल हीरामणि को बहुत झटका लगा था.लता यानी कि उसकी पत्नी का सात वर्षों का साथ था. कभी छुटपुट लड़ाइयाँ हो जाती थीं और सुलह भी हो जाती थी. ऐसा क्या हो गया? जो वो उसका त्याग करके चली गई. 

वो अपनी उदासी के जाल में फँसता ही जा रहा था.

दुःख से ज़्यादा अपमान की आग लगी हुई थी. 

वो अपनी आलमारी साफ़ कर रहा था कि उसके हाथ एक पत्र लगा जो उसकी पत्नी ने जाने से पहले उसके लिए लिख छोड़ा था. उसने काँपते हाथों से पत्र खोला. 


  प्रिय हीरामणि, 

जब तक ये पत्र मिलेगा मैं दूर जा चुकी होऊंगी. मैं जानती हूं,आपके मन में मेरे लिए नफरत के अलावा कुछ नहीं है, इसीलिए मैं अपनी बात आपको लिख कर बता रही  हूं. 

यहाँ जो बंधन थे, उनसे उमंग मर गई थी. बिना उमंग के मैं नहीं जी पाऊँगी. आपको पता है. 

आज के परिपेक्ष्य में बेशक मेरा यह कदम गलत कहा जा सकता है. किंतु आने वाले समय में हर किसी को अपने मनपसंद साथी को चुनने का हक होगा.  मैं समय का इंतजार तो नहीं कर सकती, बस इसीलिए जा रही हूं.

मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं हैआप एक अच्छे इंसान हैं. एक वफादार सेवक भी है किंतु जब से हम लोग ठाकुर की कोठी में आ गए हैं. मेरा आपके के प्रति दृष्टिकोण ही बदल गया है. अच्छा होता कि हम लोग बाहर ही रहते और बहुत सी बातें मुझसे छुपी रहतीं,  मैं भी आसानी से अपना जीवन व्यतीत कर लेती.,जैसे आम स्त्रियां अपने बच्चे को बड़ा करती हैं और कभी-कभी नए गहने बनवा कर खुश होती हैं , किन्तु यहां आकर मुझे सबके सारे कच्चे चिट्ठे पता चल गए  और दुख इस बात का है इन सब में आप भी  बराबर के भागीदार हैं. 

मैं अगर आपसे बात करती भी तो क्या आप ये अंधभक्ति छोड़ देते? 

किसी स्त्री के कहने से आज तक तो पति ने कुछ छोड़ा  नहीं है, तो क्या आप ठाकुर की नौकरी छोड़ देते?  नहीं ना. बस! इसीलिए मैं जा रही हूं. जो प्रश्न मुझे विचलित  करते थे, क्या आप जानना चाहेंगे? 

सबसे पहला इस घर में मर्यादा नहीं है. एक वृद्ध अपने से बहुत छोटी स्त्री को लेकर सिर्फ इसलिए आ जाता है क्योंकि उसे संतान चाहिए जबकि  उसकी संतान है पर पुत्री को वह सन्तान का दर्जा नहीं देता उसे तो एक पुत्र चाहिए. 

दूसरा, पूरे गांव के लोगों को मैं बैठक में गिड़गिड़ाते हुए  देखती हूं. मेरा जी रो जाता है. थोड़े से पैसों के लिए उनकी ज़मीन के कागज़ उनके गहने बर्तन भांडे तक आप लोग जमा कर लेते हैं. नहीं देखा जाता है ये सब. मैं ऐसे व्यक्ति के साथ नहीं रह सकती जो किसी भी अपराध में शामिल हो. जी हां !मेरी दृष्टि में यह सब अपराध ही हैं और अगर ठाकुर अपराधी ना होते तो इतने शस्त्रों का भंडार करने की क्या आवश्यकता थी? 

 इस घर में अगर मुझे कोई प्रिय है तो वह है गुड़िया बेचारी बदनसीब लड़की! अपने पिता के होते हुए भी वह अनाथ है. वो तो अच्छा हुआ कि उसका विवाह हो गया और वह अपने घर चली गयी. मैं तो ईश्वर से बस यही दुआ करती हूं एक  दिन स्त्रियों को सद्बुद्धि दे और वे अपने अधिकारों के लिए खड़ी हों. बस मेरा दृष्टिकोण साफ है दुनिया को चाहे सही लगे या गलत, किंतु मैं जा रही हूं. मुझे वापस लाने या ढूंढने की कोशिश मत करना. यदि ठाकुर की मदद से तुम वापस ले भी आए तो यकीन मानो मैं  जहर खा लूंगी या फांसी लगा लूंगी.

लता

 पत्र को पढ़ते ही हीरामणि के पसीने छूट गए हर वक्त हंसती खिलखिलाती लता उसे कटु सत्य का आइना दिखा कर चली गई थी. उदास हीरा ने दुःख और निराशा के साथ 🌺 पत्र के छोटे-छोटे टुकड़े किए और उन में आग लगा दी साथ ही साथ अपने रिश्ते को भी मानो अंतिम विदाई दे दी हो. 

तभी उसका पुत्र जीवन आ गया और बोला "पिताजी भूख लगी है."

"हाँ बेटा दूध पियेगा?"

"नहीं मुझे पूड़ी खानी है. पिताजी माँ कब आयेगीं?"

उसने पूछा तो हीरा निरुत्तर हो गया. 

दिन गुज़रते जा रहे थे. वो ठाकुर, ठकुराइन  के सामने नहीं पड़ रहा था.

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ठकुराइन की मनोदशा 

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जब से लता कोठी छोड़ कर चली गई, ठकुराइन का  रात दिन का चैन उड़ गया है. वैसे भी उसके जीवन में चैन कहाँ है? शादी के बाद से कितनी रातें उसने रो रो कर गुज़ारी हैं वो किससे कहे? उसका अपना कोई अस्तित्व है यही तलाशने के लिए उसने गाँव की लड़कियों को इकठ्ठा किया था. किन्तु सब कुछ ख़राब हो गया, अब आगे कैसे ठीक होगा? उसे पता नहीं है. 

अगर लता ढूंढने से नहीं मिली तो मैं कभी भी स्वयं को माफ़ नहीं कर पाऊँगी. 

निर्लज्ज औरत मेरे जीवन में कांटे बो कर चली  गई है. 

जो बात मैं कभी अकेले में भी नहीं स्वीकारना चाहती वो उसने सभी नौकरों के सामने कही है. 

वो तो भला हो ठाकुर साहब तक किसी की हिम्मत नहीं है वरना गज़ब ही हो जाता. 

ठकुराइन ने छत से नीचे झाँका विशेश्वर की आवाज़ें आ रही थी. आजकल ठाकुर का काम वही देख रहा था. 

नीचे बहसबाजी चल रही थी. किसी को डाँट रहा था विशेश्वर "मुझे नहीं पता पैसे कहाँ से लाओगे किन्तु जब ले गए थे और लौटाने का वादा किया था तो लौटाओ. नहीं तो अपने बैल हमारे यहाँ जमा करा जाओ."

"नहीं सरकार बैलों के बल पर ही चार पैसे कमा पाते हैं. हमारा सहारा हैं."

इसीलिए तो उधार वापस करने को कह रहे हैं. 

बस दो महीने की मोहलत दे दीजिये. फ़सल कटते ही पैसे जमा कर दूंगा. 

ठकुराइन नीचे उतर आई थी,  उसने एक आदमी को अपने पास बुलाया और पूछा "कितने रूपए की उधारी है."

"जी मालकिन उसने सौ रूपए लिए थे.एक साल में एक पैसा भी नहीं दे पाया है. पिछले साल बिटिया का ब्याह किया था.अभी और बेटियाँ भी हैं."

"ये लो  सौ रूपए. विशेश्वर को दे देना और कहना मैंने उसे बुलवाया है."

"जी मालकिन !कहीं भैया बुरा ना मान जाएं."

"तुम किसका कहना मानोगे? मेरा या भैया का? "

"जी समझ गए मालकिन "

"खड़े खड़े मुहँ क्यों देख रहे हो? जाओ. "

थोड़ी देर में विशेश्वर ठकुराइन के सामने सिर झुकाए खड़ा था. 

ठकुराइन बोली "ये जो आज हरकत दी है. आख़िरी होनी चाहिए. अन्यथा तुम्हारा सारा सामान सड़क पर फिंकवा दूँगी समझे."

"जी जिज्जी !"

"इन्सान को अपना अतीत कैसे इतनी जल्दी भूल जाता है? मुझे ताज्जुब होता है."

विशेश्वर कुछ ना बोला. बस सिर नीचे किये रहा.

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सामाजिक कार्य कर्ता ठकुराइन 


तभी बाहर गेट पर बी. डी. ओ. साहब आये. उन्हें बैठक में बिठाने के बाद चाची माँ ने ठकुराइन को सन्देश भेजा "तुरन्त नीचे आओ."

बी. डी. ओ. साहब बुला रहे हैं. 

 वीडियो साहब ने ठकुराइन का अभिवादन करते हुए कहा "आपसे मिलने की बहुत इच्छा थी. सुना है आप ग्रामीण स्त्रियों के लिए बहुत नेक काम कर रही हैं हम लोग उसी कार्य को आगे बढ़ाने आए हैं सरकार की ओर से सभी स्त्रियों को कुकिंग क्लासेस जिसमें किअचार बनाना और फल संरक्षण की विधियां सिखाई जाएंगी साथ ही बिस्किट, ब्रेड और केक बनाना भी सिखाएंगे जिससे कि लड़कियां चाहे तोआगे  कुटीर उद्योग के रूप में कार्य कर सकती हैं.हमें आपसे बस थोड़ी सी जगह और लड़कियां चाहिएजिन्हें हम सिखा सकें. हम यह भी चाहेंगे हमारे शिक्षक आपकी देखरेख में कार्य करें. क्या आपको हमारा यह निवेदन स्वीकार है." ठकुराइन की आंखों में चमक आ गई वह बोली "बहुत अच्छा इरादा है नेकी और पूछ पूछ. मैं अपने तन मन धन से इस कार्य में आप लोगों का सहयोग करूंगी."

"मुझे आपसे यही उम्मीद थी" बी डी ओ साहब ने कहा "चलता हूं और शीघ्र ही मिलूंगा . "

"आप ऐसे नहीं जा सकते."ठकुराइन ने कहा "क्या पिएंगे?  मीठी लस्सी, छाछ, या दूध."

उसके इतना कहते ही अन्दर से एक सेवक चमकते हुए चाँदी के लोटों को एक सुन्दर सी ट्रे में रख कर उपस्थित हो गया. 

"इतना सारा "

"हम गाँव वाले तो पूरा लोटा भर के ही पी जाते हैं. "

"आज आप भी कोशिश कीजिये. आप पी सकेंगे."

"हमारे यहाँ कप प्लेट में मेहमानों को नहीं परोसते हैं."

ठकुराइन हँसी थी, और बी. डी.ओ. उस स्त्री की हँसी पर मन्त्र मुग्ध हो गए थे. 

बातचीत में शालीनता, मृदुल हास्य, चाल में गरिमा, और उत्तम कोटि का वस्त्र चयन ठकुराइन को आम स्त्रियों से भिन्न बना रहा था. 

वे सोच रहे थे. किसी प्रौढ़ा से मुलाक़ात होगी. 

ये तो बीस पच्चीस वर्ष की युवती थी. 

उसका चुंबकीय व्यक्तित्व ऐसा था कि वो मोहपाश में गटागट पूरी लस्सी का लोटा एक सांस में गटक गए. 

ठकुराइन मुस्कुराई और अपने सेवक से कहा "ज़रा हीरामणि को बुला दो,बी.डी.ओ.साहब को संस्था घुमा लाएंगे."

चाची माँ ने ठकुराइन को अपने पास बिठाया और कहा  "हर व्यक्ति के जीवन का कुछ ना कुछ अर्थ होता है, ईश्वर ने तुम्हें स्त्रियों के भाग्य को बदलने के लिए चुना है.ऐसा मौका सबको नहीं मिलता बेटी.आगे बढ़ो !अपनी पहचान बनाओ. "

"माँ "ठकुराइन की आँखों में आँसू थे. 

"तुमको दूसरों के आँसू पोंछने हैं. ऊपर से कठोर दिखोगी, तभी यह कार्य संभव होगा."

"मुझसे संभव नहीं हो पायेगा.मैं अकेली हूं."

"तुम्हारे साथ हीरा है."

ठकुराइन सोच में पड़ गई. क्या अर्थ है? चाची माँ की बातों का. कभी फ़ुरसत से पूछेगी. 

तभी गुड़िया के घर से टेलीग्राम आया गुड़िया और     उसके पति का एक्सीडेंट हो गया था. पति पत्नी दोनों को बहुत चोट आयी है. वे जिला अस्पताल में भर्ती हैं. 

ठकुराइन और हीरा  शहर के लिए रवाना हो गए थे.

किसी ने सच ही कहा है "जब मनुष्य के पेट में अन्न पड़ जाए सर पर छत हो और भविष्य के प्रति आश्वस्त मन हो तो परोपकार  करने के विचार जन्म लेना शुरु हो जाते हैं.

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करीब पंद्रह दिन बाद गुड़िया की अस्पताल से छुट्टी हो गई थी. इन दिनों में उसके और ठकुराइन के बीच का द्वेष कम हुआ था. ठकुराइन आग्रह कर के गुड़िया को अपने साथ घर ले आयी, दिक्कत ये थी कि दामाद जी अभी भीआई सी यू में भर्ती थे. 

शारीरिक रूप से अस्वस्थ गुड़िया ने खाना पीना छोड़ सा दिया था. उसका कहना था जब तक उसका पति अपने आप उठ कर बैठ नहीं जाता. वो अन्न ग्रहण नहीं करेगी. 

गुड़िया की इस ज़िद से ठकुराइन बहुत आहत हुई. 

कहीं ना कहीं उसको ये बात कचोट रही थी कि गुड़िया आज जिस परिस्थिति में है उसकी जिम्मेदार वो भी है. इतनी कम उम्र में ब्याह के फलस्वरूप गुड़िया की पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी.

एक ओर वो गाँव की लड़कियों को आगे बढ़ाने का स्वप्न देखती है, दूसरी ओर उसके पति की सन्तान अपने ही घर में उपेक्षित है, सिर्फ़ इसलिये कि वो पुत्री है. 

गुड़िया अब भी अपनी दादी माँ का स्नेह पा रही है. वो दादी जिसके साथ कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है. 

दामाद जी की सलामती के लिए ठकुराइन ने अपने घर में जगराता रक्खा, जिसमें पूरे गाँव की हर स्त्री को न्योता भेजा गया था. इसका उद्देश्य गुड़िया का मन बहलाना भी था शाम होते होतेही पंडित जी समेत स्त्रियों की संख्या बढ़ने लगी तभी शुभ्र वस्त्र धारण किए माथे पर बड़ी सी बिंदी लगाए मुंह में पान रचाये हुए एक स्त्री ने प्रवेश किया जिसे देखकर ग्रामीण स्त्रियों के बीच खुसुर पुसुर प्रारम्भ हो गई पंडित जी भी अपनी जगह से उठ गए उस स्त्री को प्रणाम किया. चाची मां ने आगे जाकर उसका स्वागत किया ठकुराइन से कहा "बेटा यह बुआ है इस गांव का कोई भी जगराता इनकी उपस्थिति के बिना पूरा नहीं होता.ठाकुर के गांव में उनका अपना विशेष स्थान है जाकर उनके पैर छुओ और आशीर्वाद लो."

आज तक कभी भी ठकुराइन ने इतना हंसमुख और गरिमामयी चेहरा गांव में नहीं देखा था. वो बुआ को अपलक निहारती रही. उस अद्भुत व्यक्तित्व की मालकिन स्त्री ने उसके सर पर प्रेम से हाथ फिराया और कहा "यशस्वी भव! तुम्हारा बहुत नाम सुना था ठकुराइन! आज दर्शन भी हो गए."

जगराते के प्रथम पांच भजन बुआ ने गाये उनकी टेर में दर्द था.लगता था ईश्वर स्वयं उसकी पुकार से खिंचे चले आ रहे हैं. सरस्वती कंठ में विराजमान हो संस्कृत उच्चारण लय ताल की समझ उसे ग्रामीण स्त्रियों से अलग कर रही थी. भजन गाने के बाद वो स्थान से उठी तो ठाकुर उनके पीछे पीछे हो लिए. "हीरामणि!"बुआ के घर तक छोड़ कर आओ."

" जी सरकार"

मंत्रमुग्ध सी ठकुराइन उस स्त्री के पीछे चल पड़ी थी. उसे मोटर कार तक बैठाने के लिए . बुआ ने कहा "पूजा से उठ करआना अच्छा नहीं है मेरी बच्ची !तुम यहां की व्यवस्था देखो मैं चली जाऊंगी."

गुड़िया की अवस्था में सुधार आने लगा था. घर में शुभ शकुन आने लगे थे. उस दिन सुबह-सुबह हीरामणि जब तक अस्पताल के लिए निकल रहा था गुड़िया दौड़ कर आयी उसके पास आ गई और बोली "चाचा मैं भी चलूंगी"

" हां बेटा क्यों नहीं? तुम मोटर चलाना क्यों नहीं सीख लेती हो. "

गुड़िया ने कहा "हां चाचा अवश्य सीखेंगे एक बार उनको घर आ जाने दीजिए. क्या हम लोग रास्ते में मठिया होकर चल सकते हैं मेरा बहुत विश्वास है की मठिया वाले हनुमान जी मेरे पति को अवश्य जीवनदान देंगे. गुड़िया ने पहली बार हीरामणि से कुछ मांगा था. उसका हृदय द्रवित हो गया. "बिटिया रानी आप जैसा कहेंगी वैसा ही करूंगा."

इधर गुड़िया और ठकुराइन में मित्रता का संबंध स्थापित हुआ कहीं ना कहीं ठाकुर साहब की नजरों में ठकुराइन की इज़्ज़त बढ़ गई थी. 

ठकुराइन ने इन दिनों जीवन और मृत्यु को बड़ी करीबी से देखा था. ठाकुर साहब के प्रति उसके मन में जो विचार थे वे भी बदल रहे थे. उनके स्नेह की ऊष्मा उस तक पहुँच रही थी. 

साथ ही अनजाने ही हीरामणि का साथ अब कई घंटों तक के लिए उपलब्ध हो गया था. उसका मन गुनगुनाने को करने लगा था. 

उस रोज़ ठाकुर साहब ने छत पर टहलते हुए अपने आप अपनी जीवन कथा छेड़ दी थी. वे बोले "जानती हो मैंने जब होश सम्भाला तो मुझे पता चला कि मेरी माँ का देहान्त हो चुका है. जिन्हें मैं माँ समझता हूं वो मेरी चाची हैं.मैं बालक था यही कोई सात आठ बरस का. बहुत खिन्न हुआ, जब दस बारह वर्ष का हुआ हमारे घर एक नवयुवक सा साधू आया करता था. चाची उसे प्रणाम करती उसके भोजन की व्यवस्था करतीं किन्तु वह बैठक में थोड़ी देर रुकता और चला जाता था."

वे बोले "मैंने उसके जाने के बादचचिया  की आँखों में आँसू देखे थे. थोड़ा और बड़ा हुआ तो पता चला उनका इकलौता पुत्र है वो. यानी कि मेरा चचेरा भाई. मैं तब बच्चा ही था फ़िर भी प्रसन्न था अच्छा है जो ये साधू बन गया अन्यथा मुझे इस घर में सम्पत्ति के साथ साथ प्रेम का भी बंटवारा करना पड़ता."

उनके मुख पर अलग सी हँसी आयी "बस बचपन से ही कुछ अलग परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है मुझे. इसलिये कह सकती हो कुछ संवेदनाये मर सी गई हैं."

ठकुराइन शान्त भाव से सुन रही थी 

"जब से तुम जीवन में आयी हो जीने की इच्छा ने जन्म लिया है. ना जाने क्यों लगता है जैसे जीवन का संध्या काल शान्त और सुन्दर गुजरेगा."

"वो तुम हैरान हो कर जिस स्त्री को देख रही थी उस दिन जगराते में दरअसल यहाँ अपना कोठा चलाती थीं . पर उनके अपने नियम थे छोटे लड़कों को भगा देती थी .कहती थी तुम्हारी बुआ हूँ .इसीलिये गाँव के सब बच्चे बड़े उन्हें बुआ कहते हैं. उन्होंनेअपने कार्य से वर्षों पहले रिटायरमेंट ले लिया है, पहले क्या रौनक होती थी उनके यहाँ, तुम सोच नहीं सकती हो."

"बुआ की वज़ह से हमारे गाँव में कभी डकैती नहीं पड़ी."

वे हँसे और ठकुराइन डर गई. 

उसका डर देख कर ठाकुर बोले "जब इस घर से सम्बन्ध जोड़ा है तो तुमको यहाँ का इतिहास पता होना चाहिए ठकुराइन अन्यथा मेरे स्वर्ग सिधारने के बाद लोग तुम्हें ना जाने क्या क्या सिखाएंगे और किनारे फेंक देंगे."

" दुनिया बड़ी ज़ालिम है, इसका उजला और स्याह पहलू सबको पता होना चाहिए ."

वो हतप्रभ सी ठाकुर की बातें सुन रही थी. तभी हीरामणि आया बहुत घबराया हुआ था. वो बोला "साहब पक्की ख़बर है गाँव की नहर के पार डाकू दुर्गम सिंह ने अपना पड़ाव डाला हुआ है."

"कभी भी वो हमारे गाँव की ओर रुख कर सकता है."

ठाकुर बोले "आज ही ठकुराइन और गुड़िया को बुआ के घर पहुंचा दो. "

"सभी को सावधान कर दो किसी अनजान के आने पर गेट नहीं खोलेंगे."

"जो नये शस्त्र खरीदे हैं चलाना सीख लिया था? "

"जी ठाकुर!"

"डरने की कोई बात नहीं है.हम उसका मुकाबला करेंगे.किसी ने अवश्य मुखबिरी की है.पर कोई बात नहीं हम निपट लेंगे."

दो पल पहले शान्त दिखने वाले ठाकुर अब एकदम बदल गए थे. मानों किसी युद्ध के लिए तैयार हों. विशेश्वर को भी बुलाया गया और हीरामणि के साथ मिलकर उसने सभी बंदूकों राइफ़ल्स को अपलोड किया.उसकी घबराहट देख कर ठाकुर बोले हमारे पास सभी लाइसेंस्ड हथियार हैं डरने या घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है. 

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बुआ का कोठा (गाँव के बाहर के टोले में था.)

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रात्रि के करीब ग्यारह बजे थे कोई बुआ का दरवाजा जोरों से पीट रहा था. 

बुआ ने पूछा "कौन है?"

"मैं हूँ बुआ! दुर्गम सिंह, कई दिनों से मेरे साथियों और मैंने कुछ नहीं खाया है. जो भी व्यवस्था हो करिये बुआ !"

"कितने आदमी हो?"अन्दर से आवाज़ आयी. 

"पंद्रह लोग हैं."

"बाहर ही छुप जाओ एक घंटे बाद आना."

"पानी मिलेगा क्या?"

"हाँ अभी भिजवाती हूँ."

एक सेवक से बुआ ने दो सुराहियों में पानी भिजवा दिया. 

बुआ ने ठकुराइन और गुड़िया को जगाया. भोजन की व्यवस्था में सभी लोगों की आवश्यकता थी चूल्हे जल पड़े और फ़टाफ़ट पूरियाँ तली जाने लगी थीं. 

तभी दुर्गम सिंह ने बाहर से आवाज़ लगाई "बुआ पुलिस के जवान कुछ ही दूर हैं. जो बन गया है दे दो."

बुआ जब गुड़िया और ठकुराइन और अपने सेवक के साथ बाहर निकली तो डाकुओं ने उन स्त्रियों के हाथ से झपट कर नमकीन पूड़ियाँ और अचार झपट लिए. 

तभी कोयल की बोली गूंजने लगी . पक्षी फड़फड़ाये. 


दुर्गम सिंह ने कहा "लगता है चलने का समय हो गया."

उसके साथियों ने बचा हुआ खाना जेबों में ठूंस लिया था और दुर्गम सिंह ने ठकुराइन से कहा "आज तुम्हारा नमक खाया है. जब भी आवश्यकता पड़े, मुझे याद कर लेना." 

"नहर के पार कोयल की आवाज़ निकालिएगा या सफ़ेद दुपट्टा पेड़ पर लटका दीजियेगा . आपलोगों की मदद को कोई ना कोई पहुँच जाएगा."

उसने हाथ जोड़ कर ठकुराइन और बुआ को प्रणाम किया .

डाकू लोग घोड़ों पर बैठे और जाते जाते बोले "बुआ चूल्हों की आग बुझा दो. चुपचाप सो जाओ जैसे कुछ हुआ ही नहीं है." 

ठकुराइन के जीवन में एक के बाद एकअजीब सी घटनाएं घटित हो रही थीं. 

बुआ ने उसे देख कर कहा "अचम्भित हो?"

"जी बुआ!"

"जिससे डर कर यहाँ छुपी थीं उसे भोजन कराने के लिए ईश्वर ने तुम्हें भेज दिया."

"जिन घटनाओं के लिए हम जीवन भर डरते हैं दरअसल वो कभी घटती ही नहीं हैं. मुसीबतें भिन्न होती हैं प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में, उनका अंदाज़ा लगाना बड़ा मुश्किल है. तभी तो इन्सान तड़प उठता है."

बुआ की ज्ञान भरी बातें सुन कर ठकुराइन और गुड़िया सोच में पड़ गए थे. ये स्त्री कभी वेश्यावृति में थी उन्हें विश्वास ना था.

*******

डाकू दुर्जन सिंह जा चुका था. मगर गुड़िया और ठकुराइन की आंखों से नींद उड़ चुकी थी. बुआ भी जाग रही थी. बुआ ने बताया आज से कई साल पहले दुर्जन सिंह पड़ोस वाले गांव में एक बकरी चुराते हुए पकड़ा गया था. उसके बाद गांव में कहीं भी चोरी होती,  इस बेचारे को ही पकड़ लिया जाता,  और हवालात  में बंद करा दिया जाता. गांव वालों के अत्याचारों से तंग आकर एक दिन इसनेअपने बचाव में किसी लड़के को खूब मारा और गलती से उस लड़के की जान चली गई. 

तब से लेकर आज तक दुर्जन इधर उधर भटक रहा है. आज वह खुलेआम डाके डालता है. कहीं ना कहीं हमारे समाज की व्यवस्था भी इस तरह केअपराधियों की जन्मदात्री है. दुर्जन कभी भी गरीबों को हाथ नहीं लगाता उसकी दुश्मनी सिर्फ अमीर लोगों से हैं. अगर उसे पता चल जाए कि किसी गरीब कन्या की शादी के लिए पैसे नहीं है तो उसके घर मदद भी पहुंचाता है. 

"लेकिन आप दुर्जनको कैसे जानती हैं?"

 "एक बार मैंऔर मेरे  दूसरे पति जो कि एक संगीत शिक्षक थे, रात में गांव आ रहे थे. हमें किसी खेत के पास शोर शराबे की  आवाज सुनाई पड़ी  जब हम वहां गए तो देखा दुर्जन को लड़के मार रहे हैं, क्योंकि मेरे पति एक शिक्षक थे, इसलिए उन्हें देख कर लड़के भाग गए तब हम दोनों इसे उठाकर अपने घर ले आए. कुछ दिनों बाद  जब तक वह चलने लायक नहीं हो गया तब तक हम लोगों ने इसकी सेवा की. तभी से मेरा और उसका मां बेटे जैसा नाता हो गया.बाद में मैं यहाँ आकर रहने लगी. इसके डर से ही यहाँ कोई मुझे परेशान नहीं कर पाता है. " 

बुआ तो रहस्य का एक पिटारा थी. 

"आपने कभी उसको डकैती छोड़ने के लिए नहीं कहा."

ठकुराइन ने पूछा  "कहा था मगर सुनता कहां है?  कहता है वो डकैती छोड़ देगा तो लोग फिर से उसे जीने नहीं देंगे.हर व्यक्ति के पास अपने कार्यों को सही ठहराने के तर्क होते हैं. "

वो  रात बहुत अजीब थी. सुबह होते ही ठाकुर आए और ठकुराइन और गुड़िया को घर ले गए.

ठकुराइन और गुड़िया सारा दिन सोती रहीं. ठाकुर और हीरामणि भी रात्रि के जागे हुए थे, किन्तु वे दिन भर पुलिस वालों के साथ बैठक करते रहे. 

बुआ ने सौगन्ध दी थी इसलिये दोनों स्त्रियों ने दुर्जन सिंह 

से मुलाक़ात के बारे में घर में किसी को नहीं बताया. 

दुर्जन की मनः स्थिति 

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 बुआ के घर से निकलने के बाद दुर्जन की आंखों के आगे उस स्त्री का चेहरा बार-बार घूमने लगा जो उसे खाना परस रही थी.कहीं ना कहीं तो इसे देखा है,  किंतु कहां? याद नहीं आ रहा था. एक बार तो मन हुआ वापस मुड़े और बुआ से जाकर पूछे या उस स्त्री से पूछ ले कौन हो तुम? यहां बुआ के घर में क्यों हो? यह घरभली  स्त्रियों का ठिकाना नहीं है. वह दोनों स्त्रियां बड़े संभ्रांत परिवार की मालूम होतीथीं.  पुलिस का डर ना होता अवश्य ही वापस चला जाताऔर अपनी गुत्थी सुलझा लेता. दुर्जन को कई दिनों तक नींद नहीं आई. उसके आगे ठकुराइन का चेहरा घूमता रहा. एक दिन रात्रि में एक स्वप्न देख कर चौंक उठा उसने देखा कि वह अपने विद्यालय में है. कई सारे लड़के हैंऔर कक्षा में बस एक ही बालिका है सुनयना. 

गुरु जीके प्रश्नों का उत्तर वही बालिका दे रही है.गुरु जी उसको शाबाशी देते हैं. दुर्जन का नाम (असली नाम पातीराम )पुकारते हैं. 

गुरु जी "पातीराम आगे आओ !"

पातीराम डर जाता है. 

"अपनी कॉपी दिखाओ!गृहकार्य किया क्या?"

"ना नहीं"

वो बालिका खिलखिला उठती है, निश्छल निर्दोष हँसी. 

स्वप्न भंग हो जाता है..... फ़िर थोड़ी देर में दूसरा दृश्य 

"पातीराम! सुना है सुनयना का ब्याह हो रहा है."

" इसमें कौन सी बड़ी बात है सभी लड़कियों के ब्याह होते हैं. "

"बड़ी बात है उस के घर में खाने का एक दाना नहीं है." "इसलिए सुनयना का ब्याह उस से चौगुनी उम्र के विधुर  ठाकुर के साथ किया जा रहा है. "

"वो राजी है तो ठीक है."

"मुझे क्या करना है?"पातीराम कहता है. 

दृश्य फिर ओझल हो जाते हैं,  और दुर्जन सिंह अपने बिस्तर पर नींद से जाग कर बैठ जाता है. सुनयना ही तो थी. किंतु वह बुआ के घर कैसे पहुंची? 

क्या उसने अपने वृद्ध पति का त्याग कर दिया? 

कुछ भी हो मुझे जाकर उसे बचाना होगा वह स्थान लड़कियों के लिए नहीं है.सुनयना के लिए तो बिलकुल भी नहीं. 

 अगले दिन भी उस के पीछे पुलिस पड़ी हुई थी, इसलिए चाह कर भी वो बुआ के घर ना जा सका. ठाकुर साहब के घर डाका डालने का इरादा भी उसने अपनी अगली योजना में डाल दिया. वह अपने कई प्रश्नों के उत्तरों में उलझ गया था. दूसरों को जवाब देने वाला, बात बात पर गोली चलाने वाला ना जाने किस द्वन्द में फँस गया था. जब से सुनयना को बुआ के यहां देखा था जीवन का एक ही उद्देश्य रह गया था हो ना हो उस लड़की को बुआ के घर से बाहर निकालना है. 

ठाकुर की कोठी के हाल 

********************


 थोड़े दिनों में ही दामाद जी की अस्पताल से छुट्टी हो गई. लेकिन उनका आधा शरीर बेकार हो चुका था.गुड़िया पूरे मनोयोग और प्रेम से अपने पति की सेवा में जुटी हुई थी उसे अपना जरा भी ख्याल ना था. घर के सभी लोग दोनों की हालत देखकर द्रवित  थे.करीब एक वर्ष तक जी जान से सेवा करने के बाद भी दामाद जी की तबीयत में सुधार नहीं आया और उन्होंने एक सुबह गुड़िया की बाहों में दम तोड़ दिया. 

गुड़िया के दुःख से ठाकुर टूट गए. उन्होंने ठकुराइन से कहा "ईश्वर ने मेरे साथ कितने अन्याय किये हैं तुम देख रही हो ठकुराइन.पहले माँ, पिता, फ़िर मेरी पत्नियां, गुड़िया से बड़ा एक पुत्र भी था मेरा,  एक वर्ष का होकर चलता बना, और अब यह पुत्री का वैधव्य भी देख लिया. जीने की इच्छा नहीं बची है."

वे बिस्तर से लग गए थे.हर सम्भव उपचारों के बावज़ूद उनकी तबीयत में कोई सुधार नहीं आ रहा था. 

तब ठकुराइन ने गुड़िया से कहा "माना विवाह एक बंधन था किन्तु  प्रेम एक मुक्ति है, तुम्हारे जीवन में दामाद जी का प्रेम आया , तुम लोग साथ साथ जीना चाहते थे. किंतु तुम चाहो तो अपनी यादों में अपने प्रेम को जीवित रख सकती हो. इस तरह रो बिसूर कर नहीं.प्रेम का अर्थ हमेशा मिलना ही नहीं है. एक कसक प्रेम को उसकी ऊंचाइयों तक पहुंचाती है."   

वो बोली 

"एक माह में तुम्हारे पिता आधे रह गए हैं. मेरा कहना मानो और तुम अपनी बची हुई शिक्षा पूर्ण करो.वे जब तक वे तुम्हारे चेहरे पर ख़ुशी नहीं देखेंगे. स्वस्थ नहीं हो पाएंगे."

"मैं तुम्हारे रहने की व्यवस्था शहर में कर देती हूं."

गुड़िया ने उसकी ओर  प्रश्नवाचक निगाहों से देखा ठकुराइन बोली "शहर में रहोगी तो बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर नहीं देने पड़ेंगे. यहां ग्रामीण स्त्रियां तुम्हें पल पल पर तुम्हारे पति की मृत्यु का आभास दिलाती रहेंगी. 

उसने आगे कहा 

 "हर स्त्री का अपना एक स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है. यह उसे समझना पड़ेगा. माना कि तुम्हारा दुख बड़ा है, किंतु बड़े दुख में तप कर ही तुम सोना बन पाओगी. मैं वादा करती हूं तुम्हारे पिता का  ख्याल रखूंगी और तुम्हारा भी. मैं तुम्हारी मां तो नहीं बन सकती किन्तु तुम मुझे अपना मित्र समझ सकती हो."

पति की मृत्यु के बाद गुड़िया इतना नहीं रोई थी जितना आज ठकुराइन के वचनों को सुनकर भावुक होकर रो पड़ी. दोनों स्त्रियां काफी देर तक आंसू बहाती रहीं. गुड़िया उठीऔर अपना सामान बाँधने लगी.

हीरामणि उसको शहर में अपने किसी मित्र के यहाँ छोड़ आये थे. गुड़िया ने अपनी पहचान छुपा कर रखी और अपने उद्देश्य की पूर्ति में लगी रही. 

उधर ठकुराइन की संस्था में लड़कियों की भीड़ बढ़ती जा रही थी अब गांव की स्त्रियों ने भी इसमें भागीदारी शुरू कर दी थी. 

 गुड़िया ने कुछ वर्षों में अपनी शिक्षा पूर्ण की

. उससे एक अच्छी नौकरी भी मिल गई थी नौकरी प्राप्त करने के पश्चात गुड़िया अपने घर आई. उसके माता-पिता दोनों ने उसके स्वागत में पूरे गांव की दावत रखी थी. हीरामणि बहुत प्रसन्नता से सारे कार्य कर रहा था. आज उसकी गुड़िया बिटिया कई वर्षों के बाद घर वापस आ रही थी. 


आज गाँव में रतजगा था. ऐसा दृश्य पहली बार देखने को मिल रहा था.आसपास के गाँव से लड़कियाँ और स्त्रियाँ आयी थीं और एक से एक सुन्दर भजन गा रही थीं. 

पुरुष वर्ग दावत की तैयारी में लगा हुआ था कि तभी हलवाइयों में हलचल मच गई. ठाकुर के घर से आये हुए अनाज के बोरे की जगह एक बोरे में चाँदी के बर्तनऔर सिक्के निकल पड़े हैं. 

हीरामणि रसोई की ओर दौड़ पड़े,आनन फ़ानन में सामान समेटा किन्तु बात सारे गाँव में फैल गई और अगल बगल के गाँवों में चर्चा का विषय बन गई. 

ठाकुर साहब ने अपने घर के दरवाजे पर दिन में भी पहरेदार बिठा दिए और शाम को चार बजे से ही बाहर का गेट बंद करने का आदेश दे दिया. 

वे दो दिन के लिए शहर जा रहे थे. उनके साथ ठकुराइनऔर गुड़िया  भी थी. 

घर पर हीरामणि और उसका पुत्र जीवन और विशेश्वर  थे. छुट्टी का दिन था. हीरामणि बाहर के गेट की सांकल लगा कर अन्दर की ओर मुड़ा ही था कि दरवाज़े को जोर से पीटने की आवाज़ आयी. 

हीरामणि ने पूछा कौन है? 

"थानेदार हूं. ठाकुर साहब को बुला दो."

"जी साहब ! अभी दरवाजा खोलता हूं."

किसी आशंका से डर हीरामणि ने दरवाज़े में मोटा ताला जड़ दिया. उसने खिड़की से बाहर की आहट लेनी चाही थी. कि तभी एक गोली सन्नाटे को चीरती हुई चल पड़ी थी. 

उसके बाद बाहर से गालियों और धमकियों के स्वर आने लगे थे. 

डाकुओं सूबेदार यादव ने ठाकुर के घर पर आक्रमण कर दिया था.  

करीब चार पांच घंटे की गोली बारी के बावज़ूद भी डाकू घर में नहीं घुस पाए थे. हीरामणि जीवन और विशेश्वर ने जम कर मुकाबला किया था. हीरामणि को कंधे पर एक गोली भी लग गई थी. किन्तु वो अन्त तक मुकाबले में डटा रहा. उसकी आँखें बंद हो रही थीं. उसे लगा वो ये जंग हार जाएगा. उसकी उनींदी आँखों में ठकुराइन और जीवन का चेहरा उभरने लगा. थोड़ी देर में वो मूर्छित हो गया. "ठकुराइन मैं तुम्हारा घर नहीं बचा पाया."वो बड़बड़ाया था. 

 इसी के साथ बाहर का बड़ा गेट डाकुओं ने तोड़ दिया था. किंतु अचानक गोलियों के चलने की दिशा बदल गई.  गांव घोड़ों की टापों  से भर गया. गोलियों की आवाज सुनकर डाकू दुर्जन सिंह अपने साथियों के साथ सूबेदार यादव से लड़ने के लिए तैयार था. दुर्जन सिंह और उसके साथियों को देखकर सूबेदार यादव वहां से उल्टे पैरों भाग निकला. प्रातः काल पूरे गांव की सड़कों पर खाली कारतूस बिखरे पड़े थे.डर के मारे कुत्ते कहीं दूर खेतों में जाकर छुप गए थे करीब 10:00 बजे कोई एक व्यक्ति घर से बाहर निकला. 

किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि बाहर झांक कर देखें क्या हो रहा है?  

दरअसल गोलीबारी की आवाज सुनकर उस रात ठाकुर के घर को बचाने दुर्जन सिंह आया था. उसने बहुत पहले ही बुआ से पता कर लिया था. उस रात्रि उन सबके लिए अन्न दात्री बनकर ठकुराइन और गुड़िया आई थी. सुनयना ही ठकुराइन है.वो जान गया था. 

आश्चर्य !पौ फटने से पहले डाकू  गाँव छोड़ कर चले गए थे. 

अगले दिन ठाकुर का घर पुलिस कर्मियों की आवाजाही से भर गया था. 

हीरामणि से पूछताछ के लिए जब थानेदार ने उसे हवालात में बुलाया तो ठाकुर साथ में गए. उन्होंने कहा हीरामणि पर उन्हें ज़रा भी शक नहीं है. वो घर के सदस्य जैसा है बल्कि उससे भी बढ़कर है. 

++++++++++

कुछ बरस बाद 

गुड़िया का ब्याह उसकी मर्जी से उसके एक मित्र से कर दिया गया. वो अपने घर में सुखी हुई. 

अभी ख़बर आयी है वो माँ बनने वाली है. ठकुराइन फूली नहीं समा रही हैं. 

बाद में ठकुराइन गुड़िया के बच्चों को गोद में टांग कर ही अपनी संस्था जाती थी. वो उसे जब तब ससुराल से बुलवा लेती थी. 

 ठाकुर की  जमीन जायदाद और घर का सारा कार्यभार हीरामणि संभाले लगा. वे जितनी वृद्धावस्था को प्राप्त होते जा रहे थे.हीरामणि पर उनका भरोसा बढ़ता जा रहा था. 

 हीरामणि ने सारा जीवन ठकुराइन की सेवा में लगा  दिया, उसने पुनर्विवाह नहीं किया. 


एक दिन बातों बातों में ठकुराइन ने ठाकुर से पूछा "आपको हीरामणि पर इतना भरोसा कैसे है?"

ठाकुर हँस पड़े और बोले "फ़िर कभी बताऊंगा?"

"नहीं मुझे अभी जानना है."

"इतना हठ अच्छा नहीं है."

"चलो बता देता हूं. पर मेरी बात को अन्यथा ना लिया जाए."

"ठीक है अब पहेलियाँ ना बुझाइये."

"देखो हीरा हम सब से  प्रेम करता है. मुझसे, तुमसे भी,  प्रेमी व्यक्ति धोखा नहीं देता."

ठकुराइन ने अपने पति की ओर हैरानी से देखा. 

"हाँ प्रेम की यही परिभाषा है उसमें त्याग होता है.हीरा ने त्याग किया है. हम सबके लिए."

"प्रेम तो उसकी पत्नी ने भी किया था और हीरा को छोड़ कर चली गई."ठकुराइन बोली. 

"नहीं वो रोमांस था रोमांस में आदमी किसी व्यक्ति को प्राप्त करना चाहता है. जैसा उसने किया."ठाकुर बोले. 

"प्रेम में प्रेमी जन दूसरे का भला चाहते हैं.यहाँ त्याग की भावना सर्वोपरि है. किसी भी हाल में उसके प्रेमी का अहित नहीं होना चाहिए."

ठकुराइन ने ठाकुर की ओर आश्चर्य से देखा वे कह रहे थे "अगर मेरे जाने के बाद तुम्हारा कोई अपना है तो ये हीरामणि ही है. इसे कभी भी इस घर से मत जाने देना."

ठकुराइन मुस्कुरा दी थी. 

"ठाकुर आपने  ये बाल धूप में ना सफ़ेद किये हैं."

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ठाकुर ने एक लम्बी उम्र पायी और ठकुराइन के साथ उनके सम्बन्ध बहुत मधुर रहे. 

गुड़िया अपने बच्चों को नानी के पास भेजती रही. पहलेचाची माँ , फ़िर ठाकुर, बाद में हीरा भी दुनिया से कूच कर गए. आज भी ठाकुर के घर में ऊपर के हिस्से में गुड़िया की संतानें और नीचे हीरामणि के पुत्र का परिवार रहता है. 

 ठकुराइन के गाँव में पत्थर फेंकिए तो आज भी हर बहू बेटी पढ़ी लिखी मिलती है.सब अपना कोई ना कोई काम कर रही हैं. 

ठकुराइन हीरामणि की मृत्यु के बाद अपनी  ज़मीन का कुछ हिस्सा बेच कर ऋषिकेश में जा बसी हैं.  

सुबह चार बजे की गंगा आरती करते हुए उन्हें देखा जा सकता है. 

शुभ्र वस्त्र में एक स्त्री जिसके चेहरे पर असीम शान्ति और तेज है भीड़ में अलग से नज़र आ जाएगी. 

समाप्त 

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