Sunday, December 13, 2020

कविता हाँ हूं जी उसकी आँखों में दर्द छलका.

 

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उसकी आँखों में दर्द छलका....,

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सत्रह बरस का 

सांवला लड़का 

शहर में अकेला

आ पहुँचा है 

ठेठ दूर गाँव से...


घबरा कर ऊँची इमारतों से 

खड़ा रहता है 

किसी पेड़ तले 

मानो आया हो 

किसी अपने के घर...


स्विगी जोमैटो के बैग

लटका कर अपनी पीठ पर 

चहक उठता है 

ऑर्डर मिलते ही....


करने लगता है बात 

निपट अनजानों से 

हाँ,  

हूं, 

जी, 

अच्छा में 

देता है जवाब....


डालता है ठिकाना 

गूगल मैप पर 

मारता है किक बाइक पर 

और करने लगता है बातें 

पवन से....


चमक है उसकी आँखों में

पहुँच है बड़े बड़े लोगों से 

जाने खोलेगा कौन दरवाज़ा

उड़ता है सोचता हुआ..,


टटोला है चोर जेब को 

खौंसे है जिसमें 

चन्द छोटे बड़े नोट,

छुअन और चुभन उनकी p0

दिला रही है याद उसे 

घर परिवार की ज़िम्मेदारी की..


नहीं हैं परवाह उसको 

गर्मी, जाड़े,बारिश की

कहाँ डरता है वो 

मौसमों के मिज़ाज से 

शहरी शोर की आवाज़ से....


भेजेगा अबके और ज़्यादा घर को 

कम हो बापू का क़र्ज़ा 

माँ के लिए लग जाए 

घर में पानी का नलका 

याद कर कर 

उसकी आँखों में दर्द छलका...


बज उठता है फिर 

पॉकेट में रखा फ़ोन

पौंछ कर आंसू अपने 

हंसता है फिर वह लड़का,

और हो जाता है फिर से 

दौर हाँ, हूँ,जी, अच्छा का....

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