Sunday, December 13, 2020

गीत

 स्वान्तः सुखाय

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किस्से कहती हूँ मैं गीत रचती हूं मैं

जो भी परिचित हैं मुझसे वो जानें सभी 

अपनी धुन में ही रमती विचरती हूं मैं

किस्से कहती हूं मैं गीत रचती हूँ मैं ...


लम्हा लम्हा मैं खुद से उलझती रही,

कभी उठती रही तो कभी गिरती रही 

मेरे अरमान औ' चाहतें भी मेरी

कोरे कागज पे स्याही बिखरती रही

जान कर भी मैं खुद से ही अनजान हूं

 इक पहेली के जैसे सुलझती हूँ मैं...


चाँद को माँगता एक बच्चा मिला

था बहादुर जो आशिक वो सच्चा मिला

शम्मा लेकर चला भीड़ से जो अलग

इन्कलाबी कहाँ फिर किसी से डरा

शोर उठता रहा ,शम्मा जलती रही

रोशनी से उसकी दमकती हूँ मैं

किस्से कहती हूं ...


रोने वाले अकेले रहे हैं यहाँ 

खुशनुमा महफिलों से सजा ये जहाँ 

आंगनों की ख़ुशी, घूँघटों में हँसी

देखा मैंने वही किया लफ़्ज़ों में बयां

आपको है नशा और मज़ा देखिये 

लड़खड़ाती हुई भी संभलती हूँ मैं...


प्रीति मिश्रा (२०२०)


(सम्पादन के लिए मुदिता गर्ग का आभार 🌹)

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