ठकुराइन
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(कहानी के पात्र, स्थान काल्पनिक हैं. )
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सुनयना के घर के बाहर बरात आ चुकी थीऔर उसके घर के अंदर क्लेश मचा हुआ था. जनवासे में भावी वर को देखकर सब लोगों में खुसुर पुसुर शुरू हो गई थी.
"कम से कम पैंतालीस वर्ष आयु तो होगी."
"अरे !पचास से कम होए तो हमारा नाम बदल देना."
"इनकी दूसरी पत्नी तो हमारे ननिहाल की थीं, बड़ी नेक औरत थी. पीलिया ने प्राण ले लिए. "
"ठाकुर तो बड़े नेक आदमी हैं इन्हें बच्ची से विवाह करने की क्या सूझी? "
"विनाशकाले विपरीत बुद्धि !"
ना चाहते हुए भी कानों में अनेक वाक्य शूल की तरह चुभने लगे थे.
सुनयना के छोटे छोटे भाई भी अपनी बहन को घेर कर उदास हो कर बैठ गए थे.
उसकी मां द्वारचार की रस्म निभाने के लिए तैयार नहीं थी. वह रणचंडी का रूप धारण करके अपनी पुत्री को सीने से लगाकर बोली " मैं अपनी बेटी के साथ कुएं में कूद जाऊंगी किंतु उस बुड्ढे से अपनी बच्ची का ब्याह ना होने दूंगी."
घर के अंदर की दशा को बाहर पहुंचते देर ना लगी और फिर प्रकट हुए पड़ोसी बिचौलिए जगेसर पंडित जो सुनयना का विवाह पड़ोस के गांव के ठाकुर वीरेंद्र प्रताप से करवा रहे थे. मां और बेटी का विलाप देखकर उनके पांव तले जमीन खिसक गई सोचने लगे कि "अगर ठाकुर की बारात वापस लौटी तो हमारे समाज में जो थू थू होगी वो अलग किंतु ठाकुर मुझे ना छोड़ेंगे." उन्होंने बेटी की मां को समझाने के उद्देश्य से कहा "एक बार मेरी बात सुन लो सुनयना की मां बाद में जो भी जी चाहे कर लेना."
" बताओ क्या कहना है? "लड़की की मां ने क्रोध से कहा.
" इतने गुस्से में तो तुम्हें कुछ समझ आएगा नहीं जरा पास बैठो और तनिक मुझे बोलने दो तुम चुप रहना." पंडित जी बोले "देखो भाभी आपके परिवार की हालत मुझसे छुपी हुई नहीं है दो बीघा जमीन में 7 प्राणियों का पेट पालना कितना कठिन है मैं जानता हूं.
" इसका मतलब यह तो नहीं कि हम अपनी लड़की को बेंच दें."सुनयना की मां रोने रोने को हो आई.
"बेचना नहीं है, तुम्हारी लड़की उस घर में जाकर राज करने वाली है. मैंने माना कि वर की आयु अधिक है किंतु यह भी सोचो कि उसके पास ढाई सौ बीघा जमीन है. आलीशान महलनुमा घर है जो नौकर चाकरों से भरा हुआ है. रोज वहां 50 नौकरों का खाना अलग से बनता है. रिश्तेदारों के नाम पर एक बूढ़ी चाची और एक बिटिया है."वे धीरे से बोले "कल बिटिया ब्याह कर अपने घर चली जाएगी.फ़िर सब आप लोगों का ही तो है."
अंदर यह बातें चल ही रही थी कि बाहर से ठाकुर साहब ने एक बहुत बड़ी चांदी की परात में लड़की के लिए अनगिनत स्वर्णआभूषण भिजवा दिए थे.परात इतनी बड़ी थी कि दो-तीन लोग उसे उठाकर लाए थे ऊपर से लाल रंग के मखमल और गोटे से सजे हुए कपड़े को जब जगेसर पंडित ने हटाया, सुनयना की मां की आंखें स्वर्ण आभूषणों की चमक से झिलमिल करने लगी. रोती हुई स्त्री एक ही पल में हंसने लगी सुनयना के मलिन चेहरे पर भी प्रसन्नता दमकने लगी. जहां रोना-धोना मचा था कुछ पलों के अंदर ही हंसी ठठ्ठा होने लगा .सुनयना एक एक आभूषण को उठाकर देखती और किसी स्वप्निल दुनिया में खोती जा रही थी.
जगेसर पंडित भी हैरान हो कर सोचने लगे " बताओ माया में कितनी शक्ति है?"
"मैंने माना कि माया के आगे एक लड़की का बलिदान हो रहा है किंतु उसकी कुर्बानी व्यर्थ ना जाएगी."इस दीन हीन परिवार के दिन ठाकुर साहब से संबंध जोड़ने के बाद फिर जाएंगे, क्योंकि ठाकुर अच्छे व्यापारी भी हैं. उन्हें हिसाब किताब करना अच्छी तरह आता है वे अपनी नववधू को प्रसन्न रखने के लिए कोई भी प्रयास ना छोड़ेंगे.'
कुछ ही देर में सप्तपदी हुई और प्रातः काल होते ही सुनयना डोली में बैठकर अपनी ससुराल रवाना हो चली उसने घूंघट की ओट से अभी तक अपने पति का चेहरा नहीं देखा था, अलबत्ता वो अपने तन पर सुशोभित गहनों को बार-बार छू कर देख रही थी.
उसने पितृगृह में कभी कांच की चूड़ियाँ तक भी ना पहनी थीं. किसी ने कभी कोई उपहार नहीं दिया था. आज विधाता ने उसे ज़ेवरों से लाद दिया था.
उसका चेहरा दमकने लगा है. स्वर्णाभूषणों की चमक से.
"पिताजी सही कहते थे अब भूखे पेट सोने के दिन गए."
तभी कहारों ने डोली नीचे रखी आगे की यात्रा एक सजी धजी मोटर कार में होनी थी.
सुनयना के पास उसका छोटा भाई भी आकर बैठ गया, बोला "जिज्जी मैं भी आपके साथ चल रहा हूं. दो चार दिन बाद साथ में लौट आएँगे. "
सुनयना ने अपनी नज़रें दौड़ाईं, तभी एक भद्र पुरुष कार की ड्राइवर सीट के बगल में बैठ गए और चालक से बोले "संभाल के चलना ठकुराइन को जरा भी कष्ट नहीं होना चाहिए."
यही थे ठाकुर वीरेंद्र प्रताप, सुनयना के पति. फ़िर बिना पीछे मुड़े हुए बोले "ठकुराइन ये हमारा सबसे प्रिय साथी है हमारा सखा, चालक, मुनीम, सब कुछ. आपको जिस चीज़ की आवश्यकता हो हीरामणि से कह सकती हैं."
पहली बार मोटर कार में बैठ कर सुनयना को उबकाई आने लगी जिसे हीरामणि ने शीशे में देख लिया और गाड़ी रोक कर एक पुड़िया से सुगन्धित पान निकाल कर उसके आगे रख दिया "ठकुराइन ये पान चबाती हुई चलिए. तबीयत अच्छी महसूस होगी."
सुनयना का हाथ उसके हाथों से टकराया, ऐसा लगा ना जाने कब से इस स्पर्श को पहचानती है.उसकी नज़रें हीरामणि की ओर उठीं वो एक करीब अट्ठाइस तीस वर्ष का सुदर्शन युवक था. जो उसकी ओर मित्रता के भाव से मुस्कुरा कर देख रहा था.
हीरा से ये प्रथम परिचय था.
ससुराल और सुनयना
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सुनयना जब ससुराल पहुंची तो उसका स्वागत जिस वृद्ध महिला ने किया वे ठाकुर साहब की चाचीथीं . वे उन्हें चचिया कहकर संबोधित करते थे.इन्होंने ही ठाकुर को पालपोस कर बड़ा किया था.ठाकुर की माँ का देहान्त हुआ तब वे मात्र दो वर्ष के थे.
चचिया का अपना एक बेटा था किन्तु बचपन से ही उसका मन पूजा पाठ में लगता था, वो गृह त्याग कर मंदिर में भगवान भजन में लगा रहता था. लोग कहते थे उसको सिद्धि प्राप्त है. आने वाले समय का पूर्वानुमान हो जाता है बचपन से ही. इसीलिये गृहत्याग कर सन्यासी बन बैठा था. उसकी ज़िद के आगे किसी की ना चली.कभी कभी घर आता. माँ की वेदना समझता था वो तेजस्वी बालक. किन्तु संसार से मोह छोड़ चुका था.
सुनयना ने देखा चचिया के पास एक 12-13 वर्ष की बालिका खड़ी थी उसका चेहरा निस्तेज हो रहा था.वह अपनी नई मां को देखकर घबरा रही थी.चचिया नववधू को सबसे पहले पूजा गृह में ले गईं, फिर उसे विश्राम करने के लिए उसके कक्ष में ले आईं.चचिया का हृदय 16 वर्षीय सुनयना को देखकर द्रवित हो उठा. कहां 50 वर्षीय ठाकुर और यह फूल सी नई ठकुराइन. कैसे क्या होगा? इसका जीवन कैसे चलेगा? उनकी बुद्धि पर मानो ताला लग गया था.
ठाकुर निकले होशियार !वे सुनयना के छोटे भाई को अपने साथ लाए थे, ताकि नववधू अपने को अकेला महसूस ना कर सके और उस पर दबाव भी बना रहे.
मुनीम हीरामणि से कहकर घर के दो कमरे शानदार ढंग से सजवा दिए गए. जहां सुनयना के भाई को ठहरा दिया गया. अस्तबल में जाकर उसे अपनी प्रिय घोड़ी भी दिखाई और पूछा क्या घुड़सवारी सीखोगे?
हाँ जीजाजी !क्या मुझे घुड़सवारी आ सकती है?
इस उम्र में सब कुछ आ जाता है. ठाकुर बोले कल से ही हम ख़ुद तुम्हें लक्ष्मी की सवारी कराएंगे.
क्या ये मुझे गिरा तो नहीं देगी?
"नहीं बहुत सीखी पढ़ी हुई है. जहाँ तक मैं कहूं वहीं से लौट कर आ जाती है."
"लक्ष्मी जा!!नहर तक भैया को घुमा ला."
ना ना करते हुए उन्होंने बच्चे को घोड़ी पर बिठा दिया.
"धीरे धीरे जाना"
घोड़ी ने हिनहिना कर मानो हामी भरी. थोड़ी देर में ही वो विशेश्वर को घुमा कर वापस ले आयी थी.
सुनयना दो-तीन दिन की थकी थी तो ससुराल में मौका पाकर लंबी नींद सोई. चचिया ने उसके कमरे में खाना भिजवा दिया था. ऐसे नर्म बिस्तर, पानी के छिड़काव से ठंडी हुई छत, पंखा झलते हुए अनुचर उसके लिए सब कुछ अप्रत्याशित था. देसी घी की महक से उसका कक्ष महक उठा था.उसने ऐसा भोजन कभी नहीं खाया था.
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ठाकुर सुनयना को ब्याह तो लाए थे किंतु उन्हें ग्रामीण बालकों का परिहास आज भी विचलित कर रहा था. कानों में वे शब्द आज भी गूँज रहे हैं."दद्दा हम भी देखें सुनयना जिज्जी जी के दूल्हे को."
"हे भगवान इनका तो आगे का एक दांत टूटा हुआ है." एक बोला था दूसरे ने कहा "जरा पूछो तो कैसे टूटा? "
"गिर गए होंगे कहीं."
तीसरा किशोर बोला "नहीं लगता है झड़ गया है."
सारे के सारे लड़के हंस पड़े थे. ऐसा अपमान उन्हें कभी नहीं झेलना पड़ा था. किंतु वे भी क्या करें? उनका ये चौथा विवाह है. पहली तीनों पत्नियां किसी न किसी बीमारी से उनका साथ छोड़ कर चलती बनीं. उनका धन भी उन्हें बचा नहीं सका.
औलाद के नाम पर बस एक 12 वर्षीय पुत्री थी मीरा. आज नहीं तो कल वो अपने घर चली जाएगी फिर इतना बड़ा राजपाट कौन देखेगा? एक पुत्र तो होना ही चाहिए. अब चौथी शादी उनकी हमउम्र स्त्री से तो होने से रही. निर्धन परिवार का व्यक्ति ही अपनी कन्या देता. किंतु गरीब आदमी के यहाँ एक बड़ी दिक्कत होती है. वे अपने बच्चों का विवाह बड़ी कम उम्र में कर देते हैं ठाकुर के पास और कोई चारा नहीं था इसलिए उन्होंने सुनयना से विवाह के लिए हां कर दी.
उन्हें एक लालच था बस एक पुत्र हो जाता इस आंगन में बहारआ जाती.इस जायजाद को उसका वारिस मिल जाता.सुनयना के छोटे भाई को देखकर ही उनका जी ललचा गया था, इसीलिए अपने साथ में ले आये, ताकि घर में कुछ चहल-पहल मालूम हो सके. ना जाने क्यों उन्हें पुत्र प्राप्ति की इतनी लालसा क्यों है?
सुनयना ने हीरामणि के साथ पूरे घर का चक्कर लगाया तो उसके कोमल पांव थक गए थे, दूसरी ओर झिझक भी हो रही थी हीरामणि से.
ठाकुर स्वयं झिझकते थेअपनी पुत्री और चचिया के सामने सुनयना से वार्तालाप करने में. इसलिये पहले ही हीरा को समझा दिया था. "कोठी का वैभव और खेत खलिहान बाग़ बगीचा सब अच्छी तरह से दिखाना."
"छोटी उम्र की वधू के मन से भय निकल जाए और वो अपने आप को इस घर परिवार का हिस्सा समझे ये बहुत आवश्यक है हीरा."
"जी सरकार!मैं समझता हूं. "हीरा ठाकुर की बुद्धिमत्ता का लोहा मान गया था. उनको किसी को भी अपने वश में करने की कला आती थी.
ठाकुर की छत से खेतों का दृश्य बहुत सुंदर दिखता था घर के बाहर चबूतरे पर ट्रैक्टर खड़े थे. तभी उसका छोटा भाई दौड़ता हुआ आया और बोला "देखो जिज्जी उधर देखो वो ट्यूबवेल दिखाई दे रहा है हम वहां आज नहा कर आए हैं. "उसके चेहरे की खुशी देखकर सुनयना ने उसको अंक से लगा लिया तभी हीरामणि आ गए और बोले "ठकुराइन ठाकुर साहब ने खेत और बाग़ घुमाने के लिए कहा है."
उसने पूछा "आप कब चलना पसंद करेंगी?"
"खेत और बाग़ क्या मैं जा सकती हूं?"सुनयना ने प्रश्न किया.
हीरामणि-"हां क्यों नहीं? आप को सब पता होना चाहिए ठाकुर की आप अर्धांगिनी हैं."
सर पर चादर ओढ़ कर सुनयना ने जब बाहर जाने के लिए कदम बढ़ाए तो चचिया ने कहा "दुल्हन गुड़िया को भी साथ लेती जाओ." "गुड़िया को घर में आपके पास रहना चाहिए नहीं तो आप अकेली हो जाएंगी."चचिया को 2 दिन पुरानी नववधू के तेवर देखकर हैरानी हुई, मन ही मन में कहा"इस बार ठाकुर से ग़लती हो गई, नयी ठकुराइनआम लड़कियों जैसी नहीं है."
घूमते फ़िरते खेतों से मूली,गाजर उखाड़कर खाते हुए सुनयना भूल गई कि वो ब्याह कर आयी है. उसकी यह छवि हीरा के मन में बस गई वैसे ही जैसे कोई अपने हृदय में देवी को स्थापित कर लेता है ये छोटी सी सुकुमारी उसके मन में विराजमान हो गई थी.
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ठकुराइन के कर्तव्य
ठाकुरसाहब ने कभी भी सुनयना को नहीं जताया कि वे उसे एक सन्तान प्राप्ति के लिए लाये हैं. किन्तु सुनयना को ये बात मालूम थी. उसने अपनी सौतेली बेटी गुड़िया की आँखों में चिन्ता भी देखी थी.साथ ही ईर्ष्या भी. अगर कोई और रिश्ता होता तो वो उसे आगे बढ़ कर गले से लगा लेती किन्तु ना चाहते हुए भी ये एक कड़वा रिश्ता था जो ठीक नहीं हो सकता था.
उसे गुड़िया को देख अपनी औकात याद आ जाती थी. कहीं ना कहीं वो अपने को उस अपराध का दोषी मानती जो उसने नहीं किया था बल्कि तक़दीर का खेल था.गुड़िया को अपनी मृत माँ का चेहरा नज़र आता जिसे वह चाह कर भी ना भुला पाती थी. इसलिये सुनयना उसे बिल्कुल ना भाती. सुनयना ने अपना सारा ध्यान ठाकुर साहब की सेवा में लगा दिया था. वो सोचती थी कि माना यह साथ मजबूरी वश हुआ है किन्तु भूखे पेट सोने और जिल्लतों के जीवन से लाख गुना अच्छा है.
पूरी तन्मयता से वो घर बाहर की जिम्मेदारी उठाने को हरदम तैयार रहती.किन्तु वो माँ नहीं बन पा रही थी. इस बात का दुःख था उसे.उसने हीरामणि को सन्देशा भिजवाया हनुमान जी की मठिया पर चलेंगे. जेठ जी से मिलने, सुना है सिद्ध पुरुष हैं. उनका आशीर्वाद लेना चाहती हूं.
हीरामणि और सुनयना जब हनुमान जी की मठिया पहुंचे तो वहाँ एक गौरवर्ण वृद्ध व्यक्ति जो कि भगवे वस्त्र धारण किये हुए था. आँखे मूंदे किसी ध्यान में खोया हुआ था.हीरामणि ने उसे इशारे से चुप रहने को कहा. बालिका सुनयना चुपचाप मंदिर की दरी पर बैठ गई. वो सोच रही थी क्या बात करूंगी?
उसने कुछ सोचा भी नहीं था. बस मन में एक इच्छा थी शायद हनुमान जी का आशीर्वाद प्राप्त हो जाए.
अचानक उस तपस्वी वेशधारी ने अपनी आँखें खोलीं औरअपने आसन को उठाते हुए पीछे की ओर मुड़े.उसकी प्रथम दृष्टि सुनयना पर पड़ी तो गम्भीर स्वर में उन्होंने कहा "प्राचीन काल में एक रानी थी. एक बार रानी ने अपनी परिचारिका से कहा मुझे भय प्रतीत होता है कि मेरे कोई सन्तान नहीं है, तब परिचरिका बोली जिनमें राजलक्षण होते हैं वहाँआसानी से सन्तान नहीं होती. ज्यादा बच्चे होना दरिद्ररता की निशानी है."इतना कह कर वो हीरामणि की ओर मुड़े."अपनी सखी से कहना चिन्ता ना करें. उनका जन्म किन्ही विशेष उद्देश्यपूर्ति के लिए हुआ है."
तपस्वी ने सुनयना से कहा "दीर्घायु भव यशस्वी भव."
और कुछ पूछना है?
"जी नहीं. चचिया आपको याद करती हैं."
"माँ हैं उनकी ममता को समझता हूं."
हीरा और सुनयना के सम्बन्ध को एक नया नाम मिल गया था. "सखी!"हीरा मन ही मन बुदबुदाया था.
ठकुराइन उसकी सखी ही होती जा रही हैं. उसने खुद भी एहसास किया है.
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ठकुराइन की मनः स्थिति
आने वाले वर्ष पंख लगा कर उड़ गए.
सुनयना को ठाकुर साहब के घर के भीतर और बाहर का हिसाब समझ में आ गया. कुछ नहीं समझ में आया था तो अपने से तीन गुनी उम्र का पति. इसे देख कर उसे अपने पिता चाचा और ताऊ की याद आती थी.वैवाहिक जीवन में ना आनंद ही था ना प्रेम.रिश्ता समय के साथ आगे बढ़ता जा रहा था दो समानांतर रेखाओं की तरह जो दिखने में तो साथ-साथ लगती हैं पर कभी नहीं मिलती हैं.
• सुनयना को उसकी माँ ने एक बात समझायी थी यदि इस घर में राज करना है तो गुड़िया के बड़े होने की प्रतीक्षा करनी होगी, उसे एक अच्छे घर में ब्याहना होगा और जितनी जल्दी हो सके तुम्हारी अपनी संतान हो जानी चाहिए ताकि ठाकुर की कृपा तुम पर बना रहे.
यह सब सुनने के बाद उसका मन और उचाट हो गया.
"इस तरह की सीख मुझे मत दो माँ."
उसने माँ से कहा कि "मैं तो नासमझ थी जब मेरा विवाह हुआ किन्तु अब पिताजी और पड़ोसी जगेसर पंडित पर बहुत क्रोध आता है, मेरा बस चलेगा तो मैं उन दोनों से इस जीवन में कभी भी बात नहीं करुँगी."
उसकी माँ आश्चर्य से अपनी बेटी का मुहँ देख रही थी.
सुनयना से ठकुराइन तक की यात्रा बहुत ही पीड़ादायक रही है.
न जाने क्यों अक्सर वो प्रेम के विषय में सोचने लगी है.
ये प्रेम क्या होता है उसने नहीं जाना.
उसका पति सभ्य है किन्तु वृद्ध है, इस कारण से क्या वो प्रेम नहीं करती?
उसने बहुत सोचने के बाद निष्कर्ष निकाला है कि बात कुछ और ही है.
प्रेम के लिए आवश्यक है समानता या आर्थिक आत्मनिर्भरता, एक ऐसा वातावरण जहाँ हलके फुल्के क्षण हो, हास्य हो रूठना मनाना हो.किसी बात पर झगड़े हों.
ठाकुर के साथ ऐसा कुछ नहीं है.
उसे हर वक्त यहाँ महसूस होता है उसके ऊपर एहसान किये जा रहे हैं.अब उसके भाई पर भी. वो एक तरह की पराधीनता में घिरी हुई है.
वो ठाकुर की चौथी पत्नी है. एक पल भी यह बात भूल नहीं पाती है.
उसका बस चले तो ये बेड़ियाँ तोड़ कर वो भाग जाए.
वो देखना चाहती है क्या अपने बूते पर ये जीवन बसर किया जा सकता है?
फ़िर ख़्याल आता है बाहर की दुनिया का अनुभव भी कुछ सही ना हो. उसके भीतर नैसर्गिक लालसा उत्पन्न हो रही है.कुछ करने की, किसी की मदद करने की भी.
ठकुराइन को अनुभव की भूख लग गई थी.किसी ने सच ही कहा है "जब मनुष्य के पेट में अन्न पड़ जाए सर पर छत हो और भविष्य के प्रति आश्वस्त मन हो तो परोपकार करने के विचार जन्म लेना शुरू कर देते हैं."
ठकुराइन के साथ भी ऐसा ही हुआ था.
ठकुराइन की तड़प बढ़ती जा रही थी. उसे अपने जीवन का कोई उद्देश्य नहीं दिख रहा था. जब माँ के घर थी, घर में सारे कामकाज में माँ का हाथ बंटाती थी. थक कर मीठी नींद सो जाती थी. यहाँ का जीवन सुस्त था.अकेलेपन से भरा हुआ जीवन.
गुड़िया पढ़ने चली जाती है. घर में होती भी है तो भी ऊपर कमरे में नहीं आती, उन दोनों के बीच एक दूरी है जो कब मिटेगी नहीं मालूम.वो अपनी दादी के पास ही रहती है.
इतना बड़ा घर काटने को दौड़ता है. उसके छोटे भाई का कमरा अवश्य ही ऊपर है किन्तु वो सुबह से ही उठकर गायब हो जाता है. गाँव का हर लड़का उससे मित्रता करना चाहता है.
उसके रंग ढंग बड़ी तेजी से बदल रहे हैं. ऐसा लगता है जैसे यहीं जन्मा हो. ऐसा ही रहा तो उसे बिगड़ते देर नहीं लगेगी.
आँख खुलते ही ठाकुर साहब का दरबार सजता है, जो रात्रि में ही विसर्जित होता है. दोपहर में बस खाना खाने के लिए अन्दर आते हैं. दिन भर चाटुकारों की महफ़िल सजी रहती है. चाय से शुरुआत होती है और हुक्के की चिलम से सभा की समाप्ति होती है.
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उस रोज़ हीरामणि बड़ी प्रसन्नता के साथ ठाकुर के घर आया उसके हाथ में मिठाई का एक दोना था, जिसमें बूंदी के लड्डू रखे थे. वह सीधा ठाकुर के कमरे में गया और उन्हें बताया कि उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है.ठाकुर ने अपने गले से सोने की चेन उतारकर उपहार के रूप में उसे दे दी और बोले "हमारी ओर से बालक को पहना देना.
ठकुराइन को भी जाकर मिठाई खिला दो."
हीरा हिचक रहा था.वे बोले " इसमें संकोच की क्या बात है? हम कह रहे हैं जाओ."
हीरामणि से पुत्र जन्म का समाचार सुनकर ना जाने क्यों ठकुराइन को घबराहट सी हुई. उसे रत्ती भर प्रसन्नता ना हुई. कहीं ना कहीं बुरा लगा ये ईर्ष्या क्यों कर हुई इसका उत्तर ठकुराइन के पास नहीं है.
पता नहीं ये आदमी उसे अपनी ओर क्यों आकर्षित करता प्रतीत होता है. जब से पुत्र हुआ है वो हीरा से यथा संभव बचती फ़िरती है.पर दिन भर में एक दो मुलाकातें हो ही जाती हैं.जो उसके अन्दर लालसा उत्पन्न करती हैं.वो हीरामणि में अपना मित्र ढूंढने लगती है.कितनी भाग्यवान होगी इनकी पत्नी वो उन दोनों के प्रेम के काल्पनिक चित्र गढ़ती है. कहीं ना कहीं एक टीस उठती है अपरिचित सी.
वो चाहती है जब खेतों पर चक्कर लगाना हो या बाग में अमियाँ का बंटवारा हो तो वो भी हीरामणि के साथ जाए.
किसी पुरुष से उसकी मित्रता सही है? उसकी बुद्धि समझ नहीं पाती है. इधर कुछ दिनों से ठाकुर की तबीयत ठीक नहीं रहती है इसलिये रात में भी कभी कभी हीरामणि यहीं रुकने लगा है. अपने कमरे में आराम करते हुए ही ठाकुर व्यापार का सारा हिसाब देखते हैं.
ऐसे में उसकी स्थिति और अजीब हो जाती है. वो काफ़ी देर छत पर बैठी रहती है.ऐसी परिस्थिति में वो झेंप जाती है. कब हीरामणि उनके कमरे से निकले तब वो कक्ष में प्रवेश करे .
उस दिन हीरामणि की पत्नी आयी थी और शिकायत कर रही थी कि हीरा उसके साथ समय नहीं बिताता है.
चचिया ने कहा "अगर ऐसा है तो तुम भी यहीं नीचे एक कमरे में अपने पुत्र को लेकर आ जाओ."
अजीब हैं इस घर के लोग जो भी आये उसके लिए एक कमरा खोल देते हैं.चचिया के वक्तव्य पर ठकुराइन को हैरानी होती है.
ठाकुर के शौक भी बड़े अलग हैं. सुना है रेस में पैसे लगवाते हैंऔर दूसरी ओर पैसे कमाने के लिए कोई भी धंधा नहीं छोड़ते हैं. आधे से ज़्यादा गाँव वालों को ब्याज पर पैसा दे रखा है.
कुछ दिन पहले किसी काम से तिजोरी खोली तो वो दंग रह गई थी. छोटी छोटी पोटलियों में ना जाने कितने लोगों के ज़ेवर रखे हुए हैं.
उसे देख कर ही वितृष्णा होने लगी है.उसे ठाकुर के सौम्य चेहरे के पीछे कोई कठोर व्यक्ति छुपा दिखने लगा. चाह कर भी उस कठोरता को वो नज़रअंदाज़ नहीं कर पाई.
उस रोज़ ठाकुर शहर से घर आये उनका रूप बदला हुआ था. उन्होंने एक नकली दाँत लगवा लिया है. अब वे पहले से बेहतर दिखने लगे हैं.युवा सहचरी को पाकर बालों को भी रंग लिया है.
हीरामणि की पत्नी जब से नीचे के कमरे में रहने आयी, ठाकुर के घर के नौकरों की मौज़ हो गई. एक तो वो सुन्दर थी दूसरे चंचल भी.
निकम्मे मजदूर उसके चारों ओर घूमने लगे, और ठकुराइन के कानों में नित नयी बातें पड़ने लगीं.नीचे के हिस्से में अच्छी राजनीति हो रही है.
गुड़िया पर भी वो बहुत स्नेह बरसाने लगी. अब गुड़िया हर जगह हीरामणि की पत्नी को ही ले जाने लगी है.
गुड़िया और उसका प्रेमी गिरीश
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कल विशेश्वर ने बताया कि "गुड़िया से बगल के गाँव का लड़का रोज़ उसे कॉलेज से घर तक छोड़ने आता है."
"लड़का ब्राम्हणों के परिवार से है. देखने में अच्छा है, किन्तु साधारण परिवार है. गुड़िया का ब्याह हो भी गया तो निबाह ना हो पाएगा." विशेश्वर ने कहा.
ठकुराइन के कान खड़े हो गए थे.
"हे भगवान !अगर गुड़िया के साथ कुछ ऊँच नीच हो गई तो कोठी की बहुत बदनामी होगी."
इसलिये कुछ दिनों से वो गुड़िया को कॉलेज से घर आने के लिए कार भेजने लगी थीं.
गुड़िया इस बात से ठकुराइन से और ज्यादा चिढ़ गई थी. किन्तु कुछ बोल ना पायी थी.
उसने अपने प्रेमी गिरीश से कॉलेज में छुप छुप कर मिलना जारी रखा. ये प्रेम महज आकर्षण वाला प्रेम ना था. दोनों एक सी रूचि रखते थे और सुख दुःख के संगी बनना चाहते थे.
गुड़िया को उसका साथ भाने लगा था. हाथ में हाथ लेकर प्रेमी युगल भविष्य के सपने देखने लगा था.
गुड़िया अक्सर स्वप्न देखती कि वो गिरीश के लिए खाना बना रही है. कभी अपने कमरे को बंद कर वो माँ के बक्से से साड़ी लपेट कर पहन लेती थी.प्रेम की रंगत उसको लुभावना और सलोना बना रही थी.
गिरीश को पता था कि उन दोनों के बीच जाति और रहन सहन की असमानता बाधा बन कर खड़ी होगी इसलिये वह एक एक क़दम फूँक फूँक कर रख रहा था. देर शाम तक कॉलेज की लाइब्रेरी में बैठना उसकी आदत में शामिल हो गया था.स्नातक होते ही वह उच्च शिक्षा के लिए बड़े शहर चला गया और उसने जी तोड़ मेहनत की परिणाम स्वरुप उसका चयन बैंक की नौकरी में हो गया था.
उनके स्वपनों को मानो पंख लग गए थे.गुड़िया स्वयं भी पढ़ाई करके किसी नौकरी में लग जाना चाहती थी. पिता के घर उसका कोई मान सम्मान नहीं था. बस यहाँ वो अपने दिन काट रही थी.
आज दोनों बेहद प्रसन्न थे. गिरीश गुड़िया को अपनी माँ से मिलाने ले जा रहा था कि रास्ते में ठकुराइन ने उन्हें एक साथ देख लिया. वो शहर किसी कार्य के सिलसिले में आई थी.
साल ख़त्म होते होते ही एक अच्छा सा घर वर देख कर ठाकुर साहब ने गुड़िया के हाथ पीले कर दिए.
कुछ दिन विवाहोत्सव की रौनक रही किन्तु दोबारा घर सूना हो गया था.
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सारे काम काज ख़त्म कर के जब ठकुराइन ऊपर जाने के लिए जा रही थी कि उसने हीरामणि को एक चारपाई पर दर्द में तड़पते देखा.
वो उसके पास गई और पूछा "क्या हुआ?"
वो बोला "मेरी नाभि हट गई है. बचपन से ही ऐसा हो जाता है. दबा देने से ठीक भी हो जाती है."उसने दर्द से तड़पते हुए कहा
ठकुराइन उसकी ओर बढ़ रही थी पर संकोच से पीछे हो गई और बोली
"वैद्य जी को बुलाती हूं. किसी को भेजती हूं."तभी हीरा की जोर से कराह निकली और वो उसकी चारपाई के पास अनजाने ही पहुँच गई. बहुत दर्द है क्या?मुझे दिखाइए.
ठकुराइन इतना कह कर आगे बढ़ी कि पीछे से हीरामणि की पत्नी आ गई. उसे देख वो सकुचा गई बोली आप इनको देखिये. लता ने ठकुराइन को घूर कर देखा ठकुराइन की नज़र कहीं और थी. वो चेहरे के हाव भाव पढ़ नहीं सकी.
उस रोज़ हीरा और उसकी पत्नी पहली बार जोर जोर से लड़ रहे थे. हीरामणि दर्द और गुस्से से बेहाल था. उनकी लड़ाई का शोर ऊपर तक आ रहा था.
झगड़ा किसी तरह निबट ही गया होगा. वो ऊपर अपने कमरे में आ गई थी."क्या बेकार का तमाशा पाल लिया है चचिया ने."ठकुराइन ने सोचा.
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इसी बीच सरकार ने नया नियम पास किया है अब कोई भी व्यक्ति ब्याज पर पैसे उधार नहीं दे पाएगा.ये ज़ेवर गिरवी रखना भी अवैध घोषित कर दिया गया है. जिन लोगों ने क़र्ज़ ले रखा है वो सब माफ़.
ठाकुर की कोठी शोक में डूब गई.गाँव के दुर्बल आय वर्ग के लोगों ने चैन की सांस ली.
इसी बीच गुड़िया ससुराल से एक महीने के लिए वापस आयी. उसने हीरामणि की पत्नी के कमरे में बैठ कर अपने पति को प्रेमपत्र लिखा. विशेश्वर को पत्र देकर कहा "मामा इसे डाकखाने में टिकट लगा कर पोस्ट कर दीजिएगा."
गुड़िया और विशेश्वर हमउम्र थे किन्तु गुड़िया उसे मामा ही पुकारती थी.
विशेश्वर घर से निकल रहा था कि ठाकुर साहब की नज़र उस पर पड़ गई और उन्होंने गुड़िया का पत्र अपने कब्जे में कर लिया.
रात्रि में ठकुराइन ने तकिये के नीचे खुला लिफ़ाफ़ा देखा तो अचम्भित रह गई.
ठाकुर साहब बोले "तुम्हारे भले के लिए ही पढ़ रहा हूं कहीं बेटी दामाद की नज़र हमारी जायदाद पर तो नहीं है. "
ठकुराइन सोचने लगी "कैसी मानसिकता के हैं ये अमीर लोग अपनी बेटी दामाद पर ही भरोसा नहीं है."
वो कुछ ना बोली पर उसका जी चाह रहा था कि कहीं दूर एकांत में चली जाए. जहाँ इनमें से किसी की भी शक्ल उसे ना देखनी पड़े.
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उस दिन ठकुराइन अपने पति से बोली "मैं कुछ दिनों के लिए अपनी माँ के घर जाना चाहती हूं."
"ठीक है. मैं किसी ड्राइवर का इंतज़ाम करता हूं."
ठकुराइन पूरे तीन वर्ष बाद अपने घर जा रही है. माँअक्सर आकर उससे मिल जाती हैं पर रूकती नहीं हैं.
अब हीरामणि के यहाँ पुत्र जन्म ने उसके मन में और भी डर पैदा कर दिया है.इतने वर्ष हो गए पर उसकी अपनी कोई सन्तान नहीं हुई. उसे लगता है वो ठाकुर के किसी काम की नहीं, फिर वह वहां क्यों है? ये प्रश्न उसे खाए जाता है.
सुनयना जब घर के पास पहुंची तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि ये उसी का घर है. उसका पुराना टूटा फूटा मकान एक सुंदर पक्के घर में तब्दील हो चुका था. अंदर से छोटे भाई बहनों के हंसने की आवाज आ रही थी.
मां सुनयना को देखकर बहुत खुश हुई और उसे अपने हृदय से लगा लिया.
"मां तुमने बताया नहीं यह घर कब बनवाया?"
"अब पानी वानी पियेगी या आते ही प्रश्न शुरू कर दिए?" मां ने लाड दिखाते हुए कहा.
" मेरा मतलब है माँ इतने पैसे कहां से आए? "
मां बगलें झांकने लगी थी.
"ठाकुर साहब ने मदद की है? "सुनयना बोली
"बता तो दिया होता छुपाने की क्या बात थी?"
" हम लोग तो बहुत मना कर रहे थे किंतु ठाकुर ना माने कहने लगे अब आप हमारे रिश्तेदार हुए. आपकी तकलीफ हमारी भी तकलीफ है. मां बोली "वैसे ठाकुर बहुत नेक आदमी है."
"मां मैं चाहती हूं कि आप लोग विशेश्वर को यहीं वापस बुला लें, ताकि वो अपने पैरों पर खड़ा हो सके.कुलदीपक कोअपना घर उजियारा करना चाहिए. बस यही कहने मैं आई थी.अब मैं चलती हूं."
ठकुराइन चाह कर भी अपनी कटुता छिपा ना पायी थी.
मां बोली "ठीक है बेटा वापस बुला लेंगे लेकिन तुम रूकती तो अच्छा लगता.
"नहीं वहां घर पर भी लोग अकेले हैं और हां मैंने आपसे कहा है.यह बात बाहर नहीं आनी चाहिए.ना ठाकुर साहब को पता चले ना ही विशेश्वर को. "
सुनयना वापस लौटते हुए पहले से ज़्यादा दुःखी थी आख़िर कैसे हैं उसके माता पिता, इतने लालची सिर्फ़ अपना भला देखते हैं ये सब. उसने सोचा था वो अपने घर जाकर रहेगी पर वहाँ भी ठाकुर साहब की कृपा बरस रही है.
दो-चार दिनों में विशेश्वर को भी पता चल गया कि उसे वापस अपने घर जाना पड़ेगा वो घर वापस जाने के लिए तैयार ना था उसे इस घर के ऐशो आराम भा गए थे. सो उसने सुनयना के पैर पकड़ लिये जिज्जी मुझे गाँव मत भेजो. तुम जैसा कहोगी वैसे ही करूँगा. विशेश्वर ने अपना वचन निभाया भी. बाद में सारी उम्र अपनी बहन और और जीजाजी की सेवा की.
"क्या हुआ दुल्हिन? परेशान हो."चाची माँ ने ठकुराइन से कहा.
हाँ !
चाची माँ-"मुझे बताओ शायद कुछ मदद कर पाऊं."
ठकुराइन-" इस जीवन से ऊब होने लगी है."
चाची माँ-""किन्तु मनुष्य का जीवन तो सर्वश्रेष्ठ कहा गया है.शास्त्रों में लिखा है. "
"किसी पुरुष ने लिखा होगा. यदि स्त्री लिखती तो ऐसा ना लिखती."ठकुराइन बोली.
"स्त्रियां जब तक हर छोटी बड़ी बात के लिए, अपने सुख के लिए पुरुषों की ओर ताकेंगी ऐसा ही होगा."चाची माँ बोलीं. जीवन सदैव आगे बढ़ने का नाम है. स्त्रियाँ बार बार विराम ले लेती हैं. यही ग़लती करती आयी हैं.जब तक सुधार नहीं करेंगी दुःखी होती रहेंगी.कभी पिता को दोष देती हैं कभी पति को लेकर परेशान होती हैं."
"स्त्री के जीवन का उद्देश्य खाली विवाहऔर सन्तानोत्त्पत्ति नहीं है.जिस दिन ये बात समझ लेंगी औरतें, उनके जीवन में सुख अपने आप आ जाएगा. "
ठकुराइन समझ गई उसे ही समझा रही हैं.
"मुझे पता है क्या लगता है?" ठकुरानी कुछ पल के लिए रुक गई
हाँ बेटा!बताओ.
"मैं सोचती हूं जैसा मेरे साथ हुआ ऐसा किसी के साथ ना हो. विवाह के नाम पर धोखा था ये.सिर्फ़ मैंने ही नहीं ठाकुर साहब ने भी धोखा खाया है."
"तुम साहसी हो, साथ ही सच्ची भी हो."चाची माँ ने कहा.
"हाँ मुझे झूठ और बनावट पसन्द नहीं है."सुनयना बोली.
चाची माँ ने कहा "मैं सोचती थी काश मेरे एक बेटी होती, पर अब सोचती हूं अगर बेटी होती तो तुम्हारे जैसी होनी चाहिए थी. "
"आज से मैं आपको माँ कहूँगी.आपको बेटी मिल जाएगी और मुझे माँ. "
इतने वर्षों में पहली बार ठकुराइन ने चचिया को आदर से देखा था.
हम लोग मिलकर स्त्रियों के लिए कुछ करते हैं. वे बोलीं.
ठकुराइन को लगा चचिया ने उसके मुहँ की बात छीन ली हो.
चचिया ने कहा "कल ही हीरामणि से कहकर नाउन से अपने घर में कीर्तन का न्योता पूरे गाँव में भिजवा देंगे."
ठकुराइन बोली "सभी स्त्रियों को न्योता दे देते हैं. देखते हैं वे कुछ करना चाहती हैं या नहीं."
उसने चाची माँ को अपने प्रस्ताव की रूपरेखा समझाई "सबसे पहले संगीत की कक्षा प्रारम्भ करते हैं. फ़िर अगले महीने पड़ोस के गाँव की स्त्रियों को जमा करके एक साथ भजन संध्या का आयोजन कर लेंगे."
"लड़कियों के लिए प्रतियोगिता भी रख देंगे."
चाची माँ बोलीं "इस बार नौटंकी वालों का पत्ता साफ़ कर रही हो."
"नहीं नौटंकी वाले तो पूरे महीने के लिए आते हैं.हमारा तो बस एक रात्रि जागरण या फ़िर कुछ घंटे का कीर्तन होगा."
ठकुराइन ने लड़कियों की टोली को प्रोत्साहित करने के लिए पूरे 1 हफ्ते तक उनके जलपान की व्यवस्था की ताकि उनकी दिलचस्पी यहाँ आने में बनी रहे. घर में ही हलवाई लगा कर पकवान बनवाए.
एक महीना बीतते बीतते ठकुराइन ने आसपास के कई गाँवो में सम्पर्क साध लिया था.
ठाकुर साहब ने उसका उत्साह देखकर हीरामणि को ठकुराइन की मदद के लिए नियुक्त कर दिया था.
हीरामणि वाकपटु था, उसकी वज़ह से स्त्रियों की अच्छी भीड़ जमा हो रही थी.
उसके साथ घूम घूम कर ठकुराइन ने सभी स्त्रियों के हुनर को ध्यान में रखते हुए अपने गाँव में एक बड़ी सामुदायिक योजना चलाई. जहाँ से स्त्रियाँ छपाई किये हुए कपड़े और धागे ले जाएं, और उन पर कढ़ाई करने के बाद अपनी मेहनत का उचित मूल्य प्राप्त कर सकती थीं.
लता का विरोध
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सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था कि उस दिन हीरामणि की स्त्री ठाकुर के घर के आँगन में चचिया से जोर जोर से लड़ाई करने लगी.
उसका कहना था कि हीरा अब घर के लिए बिलकुल समय नहीं देता है वो छोटे बच्चे को लेकर बहुत परेशान है.
"हीरा को मैं अच्छी नहीं लगती इसलिये वो अपना बच्चा संभाले और मैं अपने घर जा रही हूं."
तभी शोर सुनकर ठकुराइन बाहर आ गई "तुम भी हमारे साथ काम क्यों नहीं करती हो? "
"ना ही मैं आपकी तरह खाली हूं, और ना ही गाँव गाँव किसी पर पुरुष के साथ घूमना पसन्द करती हूं."
ठकुराइन ने सुना तो उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. इतने में हीरामणि आ गए और अपनी पत्नी को घसीटते हुए घर से बाहर ले जाने लगे .
किन्तु वो जाते जाते बोली "मेरा मुंह कोई भी बंद नहीं करा पाएगा."
बड़े लोगों की करतूतें मैं नहीं सहने वाली हूं. ठकुराइन !मेरा पति तुम्हारे जादू में गिरफ़्तार है. उसे छोड़ दो."
हीरा की पत्नी के जाने के बाद सुनयना को लगा वो चक्कर खाकर गिर जाएगी. एक पल में ही सारे स्वप्न चकनाचूर कर गई थी ये औरत. घर में कितने नौकरों ने सुना होगा. अब पूरे गाँव में बातें बनेंगी.
हीरामणि अगले कई दिनों तक कमरे से नहीं निकला.
ना ही ठकुराइन ही नीचे आयी. फ़िरएक सुबह जब हीरामणि का पुत्र रो रहा था तब उसकी पत्नी को चारों ओर खोजा गया. वो कहीं भी नहीं मिली.
कहाँ जा सकती है ताला बंद था कोठी में.
बाहर नहीं निकल सकती.
किसी ने कहा छत का जीने का दरवाजे को देखो.
वाकई बड़ी हिम्मती औरत थी. छत से रस्सी की सहायता से नीचे उतर गई थी.
"अवश्य ही कोई साथी भी होगा "
लोग तरह तरह की बातें कर रहे थे. हीरामणि का दिमाग़ सुन्न हो चुका था.
उधर चारों ओर ठाकुर के आदमियों ने हीरामणि की पत्नी की खोज शुरू कर दी और जब असफलता हाथ लगी तो पुलिस स्टेशन में जाकर उसके खोने की रिपोर्ट लिखवा दी. करीब एक हफ्ते बाद वह अपने प्रेमी के साथ स्वयं थाने में उपस्थित हो गयी थी.
थानेदार ने जब दोनों को हड़काना चाहा तो वह बोली-"अगर आप लोग मुझे वापस भेजेंगे तो मैं फिर से भाग जाऊंगी. मैंने दूसरा ब्याह कर लिया है."
थानेदार ने पूछा "तुझे क्या ज़रूरत पड़ी कि अच्छे भले पति और बच्चे को छोड़ दिया."
वो बोली "दरोगा जी मैंने ख़ुशी से अपने पति को नहीं छोड़ा है. बस मैं उसके साथ ख़ुश नहीं थी.मैं ना ख़ुद को और ना उन्हें धोखे में रखना चाहती थी."
"लेकिन भागने की क्या ज़रूरत थी?"
"कोई मुझे बता कर आने देता क्या?मेरे माता पिता, ठाकुर, ठकुराइन, ये समाज सब मेरे विरोध में खड़े हो जाते."
"ज़्यादा मुँह ना खुलवाइये दरोगा जी!किसी के लिए भी अच्छा नहीं रहेगा. अब वो दिन गए जब ठाकुरों की कोठी में ग़ुलाम बन के भी लोग अपनी इज़्ज़त को ढांपे रहते थे."
वो बोली "लाख़ देश आज़ाद हुआ हो, अब भी आख़िरकार आप के थाने में उपस्थित होना ही पड़ा है."
हीरामणि को बुलाया गया तो उसकी स्त्री ने उसकी ओर से मुहँ फ़ेर लिया.
अजीब मुसीबत थी.दरोगा जी का सिर घूम गया था. थाने में ऐसा पहला केस था.
हीरामणि ने कहा "थानेदार साहब मेरा उससे तभी तक नाता था, जब तक वो मेरी पत्नी थी यदि उसने मुझे अपना पति मानने से ही इन्कार कर दिया है तो उसे जहाँ जिसके साथ जाना है जाने दिया जाए.मुझे कोई मतलब नहीं है. "
दरअसल हीरामणि को बहुत झटका लगा था.लता यानी कि उसकी पत्नी का सात वर्षों का साथ था. कभी छुटपुट लड़ाइयाँ हो जाती थीं और सुलह भी हो जाती थी. ऐसा क्या हो गया? जो वो उसका त्याग करके चली गई.
वो अपनी उदासी के जाल में फँसता ही जा रहा था.
दुःख से ज़्यादा अपमान की आग लगी हुई थी.
वो अपनी आलमारी साफ़ कर रहा था कि उसके हाथ एक पत्र लगा जो उसकी पत्नी ने जाने से पहले उसके लिए लिख छोड़ा था. उसने काँपते हाथों से पत्र खोला.
प्रिय हीरामणि,
जब तक ये पत्र मिलेगा मैं दूर जा चुकी होऊंगी. मैं जानती हूं,आपके मन में मेरे लिए नफरत के अलावा कुछ नहीं है, इसीलिए मैं अपनी बात आपको लिख कर बता रही हूं.
यहाँ जो बंधन थे, उनसे उमंग मर गई थी. बिना उमंग के मैं नहीं जी पाऊँगी. आपको पता है.
आज के परिपेक्ष्य में बेशक मेरा यह कदम गलत कहा जा सकता है. किंतु आने वाले समय में हर किसी को अपने मनपसंद साथी को चुनने का हक होगा. मैं समय का इंतजार तो नहीं कर सकती, बस इसीलिए जा रही हूं.
मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं हैआप एक अच्छे इंसान हैं. एक वफादार सेवक भी है किंतु जब से हम लोग ठाकुर की कोठी में आ गए हैं. मेरा आपके के प्रति दृष्टिकोण ही बदल गया है. अच्छा होता कि हम लोग बाहर ही रहते और बहुत सी बातें मुझसे छुपी रहतीं, मैं भी आसानी से अपना जीवन व्यतीत कर लेती.,जैसे आम स्त्रियां अपने बच्चे को बड़ा करती हैं और कभी-कभी नए गहने बनवा कर खुश होती हैं , किन्तु यहां आकर मुझे सबके सारे कच्चे चिट्ठे पता चल गए और दुख इस बात का है इन सब में आप भी बराबर के भागीदार हैं.
मैं अगर आपसे बात करती भी तो क्या आप ये अंधभक्ति छोड़ देते?
किसी स्त्री के कहने से आज तक तो पति ने कुछ छोड़ा नहीं है, तो क्या आप ठाकुर की नौकरी छोड़ देते? नहीं ना. बस! इसीलिए मैं जा रही हूं. जो प्रश्न मुझे विचलित करते थे, क्या आप जानना चाहेंगे?
सबसे पहला इस घर में मर्यादा नहीं है. एक वृद्ध अपने से बहुत छोटी स्त्री को लेकर सिर्फ इसलिए आ जाता है क्योंकि उसे संतान चाहिए जबकि उसकी संतान है पर पुत्री को वह सन्तान का दर्जा नहीं देता उसे तो एक पुत्र चाहिए.
दूसरा, पूरे गांव के लोगों को मैं बैठक में गिड़गिड़ाते हुए देखती हूं. मेरा जी रो जाता है. थोड़े से पैसों के लिए उनकी ज़मीन के कागज़ उनके गहने बर्तन भांडे तक आप लोग जमा कर लेते हैं. नहीं देखा जाता है ये सब. मैं ऐसे व्यक्ति के साथ नहीं रह सकती जो किसी भी अपराध में शामिल हो. जी हां !मेरी दृष्टि में यह सब अपराध ही हैं और अगर ठाकुर अपराधी ना होते तो इतने शस्त्रों का भंडार करने की क्या आवश्यकता थी?
इस घर में अगर मुझे कोई प्रिय है तो वह है गुड़िया बेचारी बदनसीब लड़की! अपने पिता के होते हुए भी वह अनाथ है. वो तो अच्छा हुआ कि उसका विवाह हो गया और वह अपने घर चली गयी. मैं तो ईश्वर से बस यही दुआ करती हूं एक दिन स्त्रियों को सद्बुद्धि दे और वे अपने अधिकारों के लिए खड़ी हों. बस मेरा दृष्टिकोण साफ है दुनिया को चाहे सही लगे या गलत, किंतु मैं जा रही हूं. मुझे वापस लाने या ढूंढने की कोशिश मत करना. यदि ठाकुर की मदद से तुम वापस ले भी आए तो यकीन मानो मैं जहर खा लूंगी या फांसी लगा लूंगी.
लता
पत्र को पढ़ते ही हीरामणि के पसीने छूट गए हर वक्त हंसती खिलखिलाती लता उसे कटु सत्य का आइना दिखा कर चली गई थी. उदास हीरा ने दुःख और निराशा के साथ 🌺 पत्र के छोटे-छोटे टुकड़े किए और उन में आग लगा दी साथ ही साथ अपने रिश्ते को भी मानो अंतिम विदाई दे दी हो.
तभी उसका पुत्र जीवन आ गया और बोला "पिताजी भूख लगी है."
"हाँ बेटा दूध पियेगा?"
"नहीं मुझे पूड़ी खानी है. पिताजी माँ कब आयेगीं?"
उसने पूछा तो हीरा निरुत्तर हो गया.
दिन गुज़रते जा रहे थे. वो ठाकुर, ठकुराइन के सामने नहीं पड़ रहा था.
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ठकुराइन की मनोदशा
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जब से लता कोठी छोड़ कर चली गई, ठकुराइन का रात दिन का चैन उड़ गया है. वैसे भी उसके जीवन में चैन कहाँ है? शादी के बाद से कितनी रातें उसने रो रो कर गुज़ारी हैं वो किससे कहे? उसका अपना कोई अस्तित्व है यही तलाशने के लिए उसने गाँव की लड़कियों को इकठ्ठा किया था. किन्तु सब कुछ ख़राब हो गया, अब आगे कैसे ठीक होगा? उसे पता नहीं है.
अगर लता ढूंढने से नहीं मिली तो मैं कभी भी स्वयं को माफ़ नहीं कर पाऊँगी.
निर्लज्ज औरत मेरे जीवन में कांटे बो कर चली गई है.
जो बात मैं कभी अकेले में भी नहीं स्वीकारना चाहती वो उसने सभी नौकरों के सामने कही है.
वो तो भला हो ठाकुर साहब तक किसी की हिम्मत नहीं है वरना गज़ब ही हो जाता.
ठकुराइन ने छत से नीचे झाँका विशेश्वर की आवाज़ें आ रही थी. आजकल ठाकुर का काम वही देख रहा था.
नीचे बहसबाजी चल रही थी. किसी को डाँट रहा था विशेश्वर "मुझे नहीं पता पैसे कहाँ से लाओगे किन्तु जब ले गए थे और लौटाने का वादा किया था तो लौटाओ. नहीं तो अपने बैल हमारे यहाँ जमा करा जाओ."
"नहीं सरकार बैलों के बल पर ही चार पैसे कमा पाते हैं. हमारा सहारा हैं."
इसीलिए तो उधार वापस करने को कह रहे हैं.
बस दो महीने की मोहलत दे दीजिये. फ़सल कटते ही पैसे जमा कर दूंगा.
ठकुराइन नीचे उतर आई थी, उसने एक आदमी को अपने पास बुलाया और पूछा "कितने रूपए की उधारी है."
"जी मालकिन उसने सौ रूपए लिए थे.एक साल में एक पैसा भी नहीं दे पाया है. पिछले साल बिटिया का ब्याह किया था.अभी और बेटियाँ भी हैं."
"ये लो सौ रूपए. विशेश्वर को दे देना और कहना मैंने उसे बुलवाया है."
"जी मालकिन !कहीं भैया बुरा ना मान जाएं."
"तुम किसका कहना मानोगे? मेरा या भैया का? "
"जी समझ गए मालकिन "
"खड़े खड़े मुहँ क्यों देख रहे हो? जाओ. "
थोड़ी देर में विशेश्वर ठकुराइन के सामने सिर झुकाए खड़ा था.
ठकुराइन बोली "ये जो आज हरकत दी है. आख़िरी होनी चाहिए. अन्यथा तुम्हारा सारा सामान सड़क पर फिंकवा दूँगी समझे."
"जी जिज्जी !"
"इन्सान को अपना अतीत कैसे इतनी जल्दी भूल जाता है? मुझे ताज्जुब होता है."
विशेश्वर कुछ ना बोला. बस सिर नीचे किये रहा.
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सामाजिक कार्य कर्ता ठकुराइन
तभी बाहर गेट पर बी. डी. ओ. साहब आये. उन्हें बैठक में बिठाने के बाद चाची माँ ने ठकुराइन को सन्देश भेजा "तुरन्त नीचे आओ."
बी. डी. ओ. साहब बुला रहे हैं.
वीडियो साहब ने ठकुराइन का अभिवादन करते हुए कहा "आपसे मिलने की बहुत इच्छा थी. सुना है आप ग्रामीण स्त्रियों के लिए बहुत नेक काम कर रही हैं हम लोग उसी कार्य को आगे बढ़ाने आए हैं सरकार की ओर से सभी स्त्रियों को कुकिंग क्लासेस जिसमें किअचार बनाना और फल संरक्षण की विधियां सिखाई जाएंगी साथ ही बिस्किट, ब्रेड और केक बनाना भी सिखाएंगे जिससे कि लड़कियां चाहे तोआगे कुटीर उद्योग के रूप में कार्य कर सकती हैं.हमें आपसे बस थोड़ी सी जगह और लड़कियां चाहिएजिन्हें हम सिखा सकें. हम यह भी चाहेंगे हमारे शिक्षक आपकी देखरेख में कार्य करें. क्या आपको हमारा यह निवेदन स्वीकार है." ठकुराइन की आंखों में चमक आ गई वह बोली "बहुत अच्छा इरादा है नेकी और पूछ पूछ. मैं अपने तन मन धन से इस कार्य में आप लोगों का सहयोग करूंगी."
"मुझे आपसे यही उम्मीद थी" बी डी ओ साहब ने कहा "चलता हूं और शीघ्र ही मिलूंगा . "
"आप ऐसे नहीं जा सकते."ठकुराइन ने कहा "क्या पिएंगे? मीठी लस्सी, छाछ, या दूध."
उसके इतना कहते ही अन्दर से एक सेवक चमकते हुए चाँदी के लोटों को एक सुन्दर सी ट्रे में रख कर उपस्थित हो गया.
"इतना सारा "
"हम गाँव वाले तो पूरा लोटा भर के ही पी जाते हैं. "
"आज आप भी कोशिश कीजिये. आप पी सकेंगे."
"हमारे यहाँ कप प्लेट में मेहमानों को नहीं परोसते हैं."
ठकुराइन हँसी थी, और बी. डी.ओ. उस स्त्री की हँसी पर मन्त्र मुग्ध हो गए थे.
बातचीत में शालीनता, मृदुल हास्य, चाल में गरिमा, और उत्तम कोटि का वस्त्र चयन ठकुराइन को आम स्त्रियों से भिन्न बना रहा था.
वे सोच रहे थे. किसी प्रौढ़ा से मुलाक़ात होगी.
ये तो बीस पच्चीस वर्ष की युवती थी.
उसका चुंबकीय व्यक्तित्व ऐसा था कि वो मोहपाश में गटागट पूरी लस्सी का लोटा एक सांस में गटक गए.
ठकुराइन मुस्कुराई और अपने सेवक से कहा "ज़रा हीरामणि को बुला दो,बी.डी.ओ.साहब को संस्था घुमा लाएंगे."
चाची माँ ने ठकुराइन को अपने पास बिठाया और कहा "हर व्यक्ति के जीवन का कुछ ना कुछ अर्थ होता है, ईश्वर ने तुम्हें स्त्रियों के भाग्य को बदलने के लिए चुना है.ऐसा मौका सबको नहीं मिलता बेटी.आगे बढ़ो !अपनी पहचान बनाओ. "
"माँ "ठकुराइन की आँखों में आँसू थे.
"तुमको दूसरों के आँसू पोंछने हैं. ऊपर से कठोर दिखोगी, तभी यह कार्य संभव होगा."
"मुझसे संभव नहीं हो पायेगा.मैं अकेली हूं."
"तुम्हारे साथ हीरा है."
ठकुराइन सोच में पड़ गई. क्या अर्थ है? चाची माँ की बातों का. कभी फ़ुरसत से पूछेगी.
तभी गुड़िया के घर से टेलीग्राम आया गुड़िया और उसके पति का एक्सीडेंट हो गया था. पति पत्नी दोनों को बहुत चोट आयी है. वे जिला अस्पताल में भर्ती हैं.
ठकुराइन और हीरा शहर के लिए रवाना हो गए थे.
किसी ने सच ही कहा है "जब मनुष्य के पेट में अन्न पड़ जाए सर पर छत हो और भविष्य के प्रति आश्वस्त मन हो तो परोपकार करने के विचार जन्म लेना शुरु हो जाते हैं.
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करीब पंद्रह दिन बाद गुड़िया की अस्पताल से छुट्टी हो गई थी. इन दिनों में उसके और ठकुराइन के बीच का द्वेष कम हुआ था. ठकुराइन आग्रह कर के गुड़िया को अपने साथ घर ले आयी, दिक्कत ये थी कि दामाद जी अभी भीआई सी यू में भर्ती थे.
शारीरिक रूप से अस्वस्थ गुड़िया ने खाना पीना छोड़ सा दिया था. उसका कहना था जब तक उसका पति अपने आप उठ कर बैठ नहीं जाता. वो अन्न ग्रहण नहीं करेगी.
गुड़िया की इस ज़िद से ठकुराइन बहुत आहत हुई.
कहीं ना कहीं उसको ये बात कचोट रही थी कि गुड़िया आज जिस परिस्थिति में है उसकी जिम्मेदार वो भी है. इतनी कम उम्र में ब्याह के फलस्वरूप गुड़िया की पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी.
एक ओर वो गाँव की लड़कियों को आगे बढ़ाने का स्वप्न देखती है, दूसरी ओर उसके पति की सन्तान अपने ही घर में उपेक्षित है, सिर्फ़ इसलिये कि वो पुत्री है.
गुड़िया अब भी अपनी दादी माँ का स्नेह पा रही है. वो दादी जिसके साथ कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है.
दामाद जी की सलामती के लिए ठकुराइन ने अपने घर में जगराता रक्खा, जिसमें पूरे गाँव की हर स्त्री को न्योता भेजा गया था. इसका उद्देश्य गुड़िया का मन बहलाना भी था शाम होते होतेही पंडित जी समेत स्त्रियों की संख्या बढ़ने लगी तभी शुभ्र वस्त्र धारण किए माथे पर बड़ी सी बिंदी लगाए मुंह में पान रचाये हुए एक स्त्री ने प्रवेश किया जिसे देखकर ग्रामीण स्त्रियों के बीच खुसुर पुसुर प्रारम्भ हो गई पंडित जी भी अपनी जगह से उठ गए उस स्त्री को प्रणाम किया. चाची मां ने आगे जाकर उसका स्वागत किया ठकुराइन से कहा "बेटा यह बुआ है इस गांव का कोई भी जगराता इनकी उपस्थिति के बिना पूरा नहीं होता.ठाकुर के गांव में उनका अपना विशेष स्थान है जाकर उनके पैर छुओ और आशीर्वाद लो."
आज तक कभी भी ठकुराइन ने इतना हंसमुख और गरिमामयी चेहरा गांव में नहीं देखा था. वो बुआ को अपलक निहारती रही. उस अद्भुत व्यक्तित्व की मालकिन स्त्री ने उसके सर पर प्रेम से हाथ फिराया और कहा "यशस्वी भव! तुम्हारा बहुत नाम सुना था ठकुराइन! आज दर्शन भी हो गए."
जगराते के प्रथम पांच भजन बुआ ने गाये उनकी टेर में दर्द था.लगता था ईश्वर स्वयं उसकी पुकार से खिंचे चले आ रहे हैं. सरस्वती कंठ में विराजमान हो संस्कृत उच्चारण लय ताल की समझ उसे ग्रामीण स्त्रियों से अलग कर रही थी. भजन गाने के बाद वो स्थान से उठी तो ठाकुर उनके पीछे पीछे हो लिए. "हीरामणि!"बुआ के घर तक छोड़ कर आओ."
" जी सरकार"
मंत्रमुग्ध सी ठकुराइन उस स्त्री के पीछे चल पड़ी थी. उसे मोटर कार तक बैठाने के लिए . बुआ ने कहा "पूजा से उठ करआना अच्छा नहीं है मेरी बच्ची !तुम यहां की व्यवस्था देखो मैं चली जाऊंगी."
गुड़िया की अवस्था में सुधार आने लगा था. घर में शुभ शकुन आने लगे थे. उस दिन सुबह-सुबह हीरामणि जब तक अस्पताल के लिए निकल रहा था गुड़िया दौड़ कर आयी उसके पास आ गई और बोली "चाचा मैं भी चलूंगी"
" हां बेटा क्यों नहीं? तुम मोटर चलाना क्यों नहीं सीख लेती हो. "
गुड़िया ने कहा "हां चाचा अवश्य सीखेंगे एक बार उनको घर आ जाने दीजिए. क्या हम लोग रास्ते में मठिया होकर चल सकते हैं मेरा बहुत विश्वास है की मठिया वाले हनुमान जी मेरे पति को अवश्य जीवनदान देंगे. गुड़िया ने पहली बार हीरामणि से कुछ मांगा था. उसका हृदय द्रवित हो गया. "बिटिया रानी आप जैसा कहेंगी वैसा ही करूंगा."
इधर गुड़िया और ठकुराइन में मित्रता का संबंध स्थापित हुआ कहीं ना कहीं ठाकुर साहब की नजरों में ठकुराइन की इज़्ज़त बढ़ गई थी.
ठकुराइन ने इन दिनों जीवन और मृत्यु को बड़ी करीबी से देखा था. ठाकुर साहब के प्रति उसके मन में जो विचार थे वे भी बदल रहे थे. उनके स्नेह की ऊष्मा उस तक पहुँच रही थी.
साथ ही अनजाने ही हीरामणि का साथ अब कई घंटों तक के लिए उपलब्ध हो गया था. उसका मन गुनगुनाने को करने लगा था.
उस रोज़ ठाकुर साहब ने छत पर टहलते हुए अपने आप अपनी जीवन कथा छेड़ दी थी. वे बोले "जानती हो मैंने जब होश सम्भाला तो मुझे पता चला कि मेरी माँ का देहान्त हो चुका है. जिन्हें मैं माँ समझता हूं वो मेरी चाची हैं.मैं बालक था यही कोई सात आठ बरस का. बहुत खिन्न हुआ, जब दस बारह वर्ष का हुआ हमारे घर एक नवयुवक सा साधू आया करता था. चाची उसे प्रणाम करती उसके भोजन की व्यवस्था करतीं किन्तु वह बैठक में थोड़ी देर रुकता और चला जाता था."
वे बोले "मैंने उसके जाने के बादचचिया की आँखों में आँसू देखे थे. थोड़ा और बड़ा हुआ तो पता चला उनका इकलौता पुत्र है वो. यानी कि मेरा चचेरा भाई. मैं तब बच्चा ही था फ़िर भी प्रसन्न था अच्छा है जो ये साधू बन गया अन्यथा मुझे इस घर में सम्पत्ति के साथ साथ प्रेम का भी बंटवारा करना पड़ता."
उनके मुख पर अलग सी हँसी आयी "बस बचपन से ही कुछ अलग परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है मुझे. इसलिये कह सकती हो कुछ संवेदनाये मर सी गई हैं."
ठकुराइन शान्त भाव से सुन रही थी
"जब से तुम जीवन में आयी हो जीने की इच्छा ने जन्म लिया है. ना जाने क्यों लगता है जैसे जीवन का संध्या काल शान्त और सुन्दर गुजरेगा."
"वो तुम हैरान हो कर जिस स्त्री को देख रही थी उस दिन जगराते में दरअसल यहाँ अपना कोठा चलाती थीं . पर उनके अपने नियम थे छोटे लड़कों को भगा देती थी .कहती थी तुम्हारी बुआ हूँ .इसीलिये गाँव के सब बच्चे बड़े उन्हें बुआ कहते हैं. उन्होंनेअपने कार्य से वर्षों पहले रिटायरमेंट ले लिया है, पहले क्या रौनक होती थी उनके यहाँ, तुम सोच नहीं सकती हो."
"बुआ की वज़ह से हमारे गाँव में कभी डकैती नहीं पड़ी."
वे हँसे और ठकुराइन डर गई.
उसका डर देख कर ठाकुर बोले "जब इस घर से सम्बन्ध जोड़ा है तो तुमको यहाँ का इतिहास पता होना चाहिए ठकुराइन अन्यथा मेरे स्वर्ग सिधारने के बाद लोग तुम्हें ना जाने क्या क्या सिखाएंगे और किनारे फेंक देंगे."
" दुनिया बड़ी ज़ालिम है, इसका उजला और स्याह पहलू सबको पता होना चाहिए ."
वो हतप्रभ सी ठाकुर की बातें सुन रही थी. तभी हीरामणि आया बहुत घबराया हुआ था. वो बोला "साहब पक्की ख़बर है गाँव की नहर के पार डाकू दुर्गम सिंह ने अपना पड़ाव डाला हुआ है."
"कभी भी वो हमारे गाँव की ओर रुख कर सकता है."
ठाकुर बोले "आज ही ठकुराइन और गुड़िया को बुआ के घर पहुंचा दो. "
"सभी को सावधान कर दो किसी अनजान के आने पर गेट नहीं खोलेंगे."
"जो नये शस्त्र खरीदे हैं चलाना सीख लिया था? "
"जी ठाकुर!"
"डरने की कोई बात नहीं है.हम उसका मुकाबला करेंगे.किसी ने अवश्य मुखबिरी की है.पर कोई बात नहीं हम निपट लेंगे."
दो पल पहले शान्त दिखने वाले ठाकुर अब एकदम बदल गए थे. मानों किसी युद्ध के लिए तैयार हों. विशेश्वर को भी बुलाया गया और हीरामणि के साथ मिलकर उसने सभी बंदूकों राइफ़ल्स को अपलोड किया.उसकी घबराहट देख कर ठाकुर बोले हमारे पास सभी लाइसेंस्ड हथियार हैं डरने या घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है.
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बुआ का कोठा (गाँव के बाहर के टोले में था.)
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रात्रि के करीब ग्यारह बजे थे कोई बुआ का दरवाजा जोरों से पीट रहा था.
बुआ ने पूछा "कौन है?"
"मैं हूँ बुआ! दुर्गम सिंह, कई दिनों से मेरे साथियों और मैंने कुछ नहीं खाया है. जो भी व्यवस्था हो करिये बुआ !"
"कितने आदमी हो?"अन्दर से आवाज़ आयी.
"पंद्रह लोग हैं."
"बाहर ही छुप जाओ एक घंटे बाद आना."
"पानी मिलेगा क्या?"
"हाँ अभी भिजवाती हूँ."
एक सेवक से बुआ ने दो सुराहियों में पानी भिजवा दिया.
बुआ ने ठकुराइन और गुड़िया को जगाया. भोजन की व्यवस्था में सभी लोगों की आवश्यकता थी चूल्हे जल पड़े और फ़टाफ़ट पूरियाँ तली जाने लगी थीं.
तभी दुर्गम सिंह ने बाहर से आवाज़ लगाई "बुआ पुलिस के जवान कुछ ही दूर हैं. जो बन गया है दे दो."
बुआ जब गुड़िया और ठकुराइन और अपने सेवक के साथ बाहर निकली तो डाकुओं ने उन स्त्रियों के हाथ से झपट कर नमकीन पूड़ियाँ और अचार झपट लिए.
तभी कोयल की बोली गूंजने लगी . पक्षी फड़फड़ाये.
दुर्गम सिंह ने कहा "लगता है चलने का समय हो गया."
उसके साथियों ने बचा हुआ खाना जेबों में ठूंस लिया था और दुर्गम सिंह ने ठकुराइन से कहा "आज तुम्हारा नमक खाया है. जब भी आवश्यकता पड़े, मुझे याद कर लेना."
"नहर के पार कोयल की आवाज़ निकालिएगा या सफ़ेद दुपट्टा पेड़ पर लटका दीजियेगा . आपलोगों की मदद को कोई ना कोई पहुँच जाएगा."
उसने हाथ जोड़ कर ठकुराइन और बुआ को प्रणाम किया .
डाकू लोग घोड़ों पर बैठे और जाते जाते बोले "बुआ चूल्हों की आग बुझा दो. चुपचाप सो जाओ जैसे कुछ हुआ ही नहीं है."
ठकुराइन के जीवन में एक के बाद एकअजीब सी घटनाएं घटित हो रही थीं.
बुआ ने उसे देख कर कहा "अचम्भित हो?"
"जी बुआ!"
"जिससे डर कर यहाँ छुपी थीं उसे भोजन कराने के लिए ईश्वर ने तुम्हें भेज दिया."
"जिन घटनाओं के लिए हम जीवन भर डरते हैं दरअसल वो कभी घटती ही नहीं हैं. मुसीबतें भिन्न होती हैं प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में, उनका अंदाज़ा लगाना बड़ा मुश्किल है. तभी तो इन्सान तड़प उठता है."
बुआ की ज्ञान भरी बातें सुन कर ठकुराइन और गुड़िया सोच में पड़ गए थे. ये स्त्री कभी वेश्यावृति में थी उन्हें विश्वास ना था.
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डाकू दुर्जन सिंह जा चुका था. मगर गुड़िया और ठकुराइन की आंखों से नींद उड़ चुकी थी. बुआ भी जाग रही थी. बुआ ने बताया आज से कई साल पहले दुर्जन सिंह पड़ोस वाले गांव में एक बकरी चुराते हुए पकड़ा गया था. उसके बाद गांव में कहीं भी चोरी होती, इस बेचारे को ही पकड़ लिया जाता, और हवालात में बंद करा दिया जाता. गांव वालों के अत्याचारों से तंग आकर एक दिन इसनेअपने बचाव में किसी लड़के को खूब मारा और गलती से उस लड़के की जान चली गई.
तब से लेकर आज तक दुर्जन इधर उधर भटक रहा है. आज वह खुलेआम डाके डालता है. कहीं ना कहीं हमारे समाज की व्यवस्था भी इस तरह केअपराधियों की जन्मदात्री है. दुर्जन कभी भी गरीबों को हाथ नहीं लगाता उसकी दुश्मनी सिर्फ अमीर लोगों से हैं. अगर उसे पता चल जाए कि किसी गरीब कन्या की शादी के लिए पैसे नहीं है तो उसके घर मदद भी पहुंचाता है.
"लेकिन आप दुर्जनको कैसे जानती हैं?"
"एक बार मैंऔर मेरे दूसरे पति जो कि एक संगीत शिक्षक थे, रात में गांव आ रहे थे. हमें किसी खेत के पास शोर शराबे की आवाज सुनाई पड़ी जब हम वहां गए तो देखा दुर्जन को लड़के मार रहे हैं, क्योंकि मेरे पति एक शिक्षक थे, इसलिए उन्हें देख कर लड़के भाग गए तब हम दोनों इसे उठाकर अपने घर ले आए. कुछ दिनों बाद जब तक वह चलने लायक नहीं हो गया तब तक हम लोगों ने इसकी सेवा की. तभी से मेरा और उसका मां बेटे जैसा नाता हो गया.बाद में मैं यहाँ आकर रहने लगी. इसके डर से ही यहाँ कोई मुझे परेशान नहीं कर पाता है. "
बुआ तो रहस्य का एक पिटारा थी.
"आपने कभी उसको डकैती छोड़ने के लिए नहीं कहा."
ठकुराइन ने पूछा "कहा था मगर सुनता कहां है? कहता है वो डकैती छोड़ देगा तो लोग फिर से उसे जीने नहीं देंगे.हर व्यक्ति के पास अपने कार्यों को सही ठहराने के तर्क होते हैं. "
वो रात बहुत अजीब थी. सुबह होते ही ठाकुर आए और ठकुराइन और गुड़िया को घर ले गए.
ठकुराइन और गुड़िया सारा दिन सोती रहीं. ठाकुर और हीरामणि भी रात्रि के जागे हुए थे, किन्तु वे दिन भर पुलिस वालों के साथ बैठक करते रहे.
बुआ ने सौगन्ध दी थी इसलिये दोनों स्त्रियों ने दुर्जन सिंह
से मुलाक़ात के बारे में घर में किसी को नहीं बताया.
दुर्जन की मनः स्थिति
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बुआ के घर से निकलने के बाद दुर्जन की आंखों के आगे उस स्त्री का चेहरा बार-बार घूमने लगा जो उसे खाना परस रही थी.कहीं ना कहीं तो इसे देखा है, किंतु कहां? याद नहीं आ रहा था. एक बार तो मन हुआ वापस मुड़े और बुआ से जाकर पूछे या उस स्त्री से पूछ ले कौन हो तुम? यहां बुआ के घर में क्यों हो? यह घरभली स्त्रियों का ठिकाना नहीं है. वह दोनों स्त्रियां बड़े संभ्रांत परिवार की मालूम होतीथीं. पुलिस का डर ना होता अवश्य ही वापस चला जाताऔर अपनी गुत्थी सुलझा लेता. दुर्जन को कई दिनों तक नींद नहीं आई. उसके आगे ठकुराइन का चेहरा घूमता रहा. एक दिन रात्रि में एक स्वप्न देख कर चौंक उठा उसने देखा कि वह अपने विद्यालय में है. कई सारे लड़के हैंऔर कक्षा में बस एक ही बालिका है सुनयना.
गुरु जीके प्रश्नों का उत्तर वही बालिका दे रही है.गुरु जी उसको शाबाशी देते हैं. दुर्जन का नाम (असली नाम पातीराम )पुकारते हैं.
गुरु जी "पातीराम आगे आओ !"
पातीराम डर जाता है.
"अपनी कॉपी दिखाओ!गृहकार्य किया क्या?"
"ना नहीं"
वो बालिका खिलखिला उठती है, निश्छल निर्दोष हँसी.
स्वप्न भंग हो जाता है..... फ़िर थोड़ी देर में दूसरा दृश्य
"पातीराम! सुना है सुनयना का ब्याह हो रहा है."
" इसमें कौन सी बड़ी बात है सभी लड़कियों के ब्याह होते हैं. "
"बड़ी बात है उस के घर में खाने का एक दाना नहीं है." "इसलिए सुनयना का ब्याह उस से चौगुनी उम्र के विधुर ठाकुर के साथ किया जा रहा है. "
"वो राजी है तो ठीक है."
"मुझे क्या करना है?"पातीराम कहता है.
दृश्य फिर ओझल हो जाते हैं, और दुर्जन सिंह अपने बिस्तर पर नींद से जाग कर बैठ जाता है. सुनयना ही तो थी. किंतु वह बुआ के घर कैसे पहुंची?
क्या उसने अपने वृद्ध पति का त्याग कर दिया?
कुछ भी हो मुझे जाकर उसे बचाना होगा वह स्थान लड़कियों के लिए नहीं है.सुनयना के लिए तो बिलकुल भी नहीं.
अगले दिन भी उस के पीछे पुलिस पड़ी हुई थी, इसलिए चाह कर भी वो बुआ के घर ना जा सका. ठाकुर साहब के घर डाका डालने का इरादा भी उसने अपनी अगली योजना में डाल दिया. वह अपने कई प्रश्नों के उत्तरों में उलझ गया था. दूसरों को जवाब देने वाला, बात बात पर गोली चलाने वाला ना जाने किस द्वन्द में फँस गया था. जब से सुनयना को बुआ के यहां देखा था जीवन का एक ही उद्देश्य रह गया था हो ना हो उस लड़की को बुआ के घर से बाहर निकालना है.
ठाकुर की कोठी के हाल
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थोड़े दिनों में ही दामाद जी की अस्पताल से छुट्टी हो गई. लेकिन उनका आधा शरीर बेकार हो चुका था.गुड़िया पूरे मनोयोग और प्रेम से अपने पति की सेवा में जुटी हुई थी उसे अपना जरा भी ख्याल ना था. घर के सभी लोग दोनों की हालत देखकर द्रवित थे.करीब एक वर्ष तक जी जान से सेवा करने के बाद भी दामाद जी की तबीयत में सुधार नहीं आया और उन्होंने एक सुबह गुड़िया की बाहों में दम तोड़ दिया.
गुड़िया के दुःख से ठाकुर टूट गए. उन्होंने ठकुराइन से कहा "ईश्वर ने मेरे साथ कितने अन्याय किये हैं तुम देख रही हो ठकुराइन.पहले माँ, पिता, फ़िर मेरी पत्नियां, गुड़िया से बड़ा एक पुत्र भी था मेरा, एक वर्ष का होकर चलता बना, और अब यह पुत्री का वैधव्य भी देख लिया. जीने की इच्छा नहीं बची है."
वे बिस्तर से लग गए थे.हर सम्भव उपचारों के बावज़ूद उनकी तबीयत में कोई सुधार नहीं आ रहा था.
तब ठकुराइन ने गुड़िया से कहा "माना विवाह एक बंधन था किन्तु प्रेम एक मुक्ति है, तुम्हारे जीवन में दामाद जी का प्रेम आया , तुम लोग साथ साथ जीना चाहते थे. किंतु तुम चाहो तो अपनी यादों में अपने प्रेम को जीवित रख सकती हो. इस तरह रो बिसूर कर नहीं.प्रेम का अर्थ हमेशा मिलना ही नहीं है. एक कसक प्रेम को उसकी ऊंचाइयों तक पहुंचाती है."
वो बोली
"एक माह में तुम्हारे पिता आधे रह गए हैं. मेरा कहना मानो और तुम अपनी बची हुई शिक्षा पूर्ण करो.वे जब तक वे तुम्हारे चेहरे पर ख़ुशी नहीं देखेंगे. स्वस्थ नहीं हो पाएंगे."
"मैं तुम्हारे रहने की व्यवस्था शहर में कर देती हूं."
गुड़िया ने उसकी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा ठकुराइन बोली "शहर में रहोगी तो बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर नहीं देने पड़ेंगे. यहां ग्रामीण स्त्रियां तुम्हें पल पल पर तुम्हारे पति की मृत्यु का आभास दिलाती रहेंगी.
उसने आगे कहा
"हर स्त्री का अपना एक स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है. यह उसे समझना पड़ेगा. माना कि तुम्हारा दुख बड़ा है, किंतु बड़े दुख में तप कर ही तुम सोना बन पाओगी. मैं वादा करती हूं तुम्हारे पिता का ख्याल रखूंगी और तुम्हारा भी. मैं तुम्हारी मां तो नहीं बन सकती किन्तु तुम मुझे अपना मित्र समझ सकती हो."
पति की मृत्यु के बाद गुड़िया इतना नहीं रोई थी जितना आज ठकुराइन के वचनों को सुनकर भावुक होकर रो पड़ी. दोनों स्त्रियां काफी देर तक आंसू बहाती रहीं. गुड़िया उठीऔर अपना सामान बाँधने लगी.
हीरामणि उसको शहर में अपने किसी मित्र के यहाँ छोड़ आये थे. गुड़िया ने अपनी पहचान छुपा कर रखी और अपने उद्देश्य की पूर्ति में लगी रही.
उधर ठकुराइन की संस्था में लड़कियों की भीड़ बढ़ती जा रही थी अब गांव की स्त्रियों ने भी इसमें भागीदारी शुरू कर दी थी.
गुड़िया ने कुछ वर्षों में अपनी शिक्षा पूर्ण की
. उससे एक अच्छी नौकरी भी मिल गई थी नौकरी प्राप्त करने के पश्चात गुड़िया अपने घर आई. उसके माता-पिता दोनों ने उसके स्वागत में पूरे गांव की दावत रखी थी. हीरामणि बहुत प्रसन्नता से सारे कार्य कर रहा था. आज उसकी गुड़िया बिटिया कई वर्षों के बाद घर वापस आ रही थी.
आज गाँव में रतजगा था. ऐसा दृश्य पहली बार देखने को मिल रहा था.आसपास के गाँव से लड़कियाँ और स्त्रियाँ आयी थीं और एक से एक सुन्दर भजन गा रही थीं.
पुरुष वर्ग दावत की तैयारी में लगा हुआ था कि तभी हलवाइयों में हलचल मच गई. ठाकुर के घर से आये हुए अनाज के बोरे की जगह एक बोरे में चाँदी के बर्तनऔर सिक्के निकल पड़े हैं.
हीरामणि रसोई की ओर दौड़ पड़े,आनन फ़ानन में सामान समेटा किन्तु बात सारे गाँव में फैल गई और अगल बगल के गाँवों में चर्चा का विषय बन गई.
ठाकुर साहब ने अपने घर के दरवाजे पर दिन में भी पहरेदार बिठा दिए और शाम को चार बजे से ही बाहर का गेट बंद करने का आदेश दे दिया.
वे दो दिन के लिए शहर जा रहे थे. उनके साथ ठकुराइनऔर गुड़िया भी थी.
घर पर हीरामणि और उसका पुत्र जीवन और विशेश्वर थे. छुट्टी का दिन था. हीरामणि बाहर के गेट की सांकल लगा कर अन्दर की ओर मुड़ा ही था कि दरवाज़े को जोर से पीटने की आवाज़ आयी.
हीरामणि ने पूछा कौन है?
"थानेदार हूं. ठाकुर साहब को बुला दो."
"जी साहब ! अभी दरवाजा खोलता हूं."
किसी आशंका से डर हीरामणि ने दरवाज़े में मोटा ताला जड़ दिया. उसने खिड़की से बाहर की आहट लेनी चाही थी. कि तभी एक गोली सन्नाटे को चीरती हुई चल पड़ी थी.
उसके बाद बाहर से गालियों और धमकियों के स्वर आने लगे थे.
डाकुओं सूबेदार यादव ने ठाकुर के घर पर आक्रमण कर दिया था.
करीब चार पांच घंटे की गोली बारी के बावज़ूद भी डाकू घर में नहीं घुस पाए थे. हीरामणि जीवन और विशेश्वर ने जम कर मुकाबला किया था. हीरामणि को कंधे पर एक गोली भी लग गई थी. किन्तु वो अन्त तक मुकाबले में डटा रहा. उसकी आँखें बंद हो रही थीं. उसे लगा वो ये जंग हार जाएगा. उसकी उनींदी आँखों में ठकुराइन और जीवन का चेहरा उभरने लगा. थोड़ी देर में वो मूर्छित हो गया. "ठकुराइन मैं तुम्हारा घर नहीं बचा पाया."वो बड़बड़ाया था.
इसी के साथ बाहर का बड़ा गेट डाकुओं ने तोड़ दिया था. किंतु अचानक गोलियों के चलने की दिशा बदल गई. गांव घोड़ों की टापों से भर गया. गोलियों की आवाज सुनकर डाकू दुर्जन सिंह अपने साथियों के साथ सूबेदार यादव से लड़ने के लिए तैयार था. दुर्जन सिंह और उसके साथियों को देखकर सूबेदार यादव वहां से उल्टे पैरों भाग निकला. प्रातः काल पूरे गांव की सड़कों पर खाली कारतूस बिखरे पड़े थे.डर के मारे कुत्ते कहीं दूर खेतों में जाकर छुप गए थे करीब 10:00 बजे कोई एक व्यक्ति घर से बाहर निकला.
किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि बाहर झांक कर देखें क्या हो रहा है?
दरअसल गोलीबारी की आवाज सुनकर उस रात ठाकुर के घर को बचाने दुर्जन सिंह आया था. उसने बहुत पहले ही बुआ से पता कर लिया था. उस रात्रि उन सबके लिए अन्न दात्री बनकर ठकुराइन और गुड़िया आई थी. सुनयना ही ठकुराइन है.वो जान गया था.
आश्चर्य !पौ फटने से पहले डाकू गाँव छोड़ कर चले गए थे.
अगले दिन ठाकुर का घर पुलिस कर्मियों की आवाजाही से भर गया था.
हीरामणि से पूछताछ के लिए जब थानेदार ने उसे हवालात में बुलाया तो ठाकुर साथ में गए. उन्होंने कहा हीरामणि पर उन्हें ज़रा भी शक नहीं है. वो घर के सदस्य जैसा है बल्कि उससे भी बढ़कर है.
++++++++++
कुछ बरस बाद
गुड़िया का ब्याह उसकी मर्जी से उसके एक मित्र से कर दिया गया. वो अपने घर में सुखी हुई.
अभी ख़बर आयी है वो माँ बनने वाली है. ठकुराइन फूली नहीं समा रही हैं.
बाद में ठकुराइन गुड़िया के बच्चों को गोद में टांग कर ही अपनी संस्था जाती थी. वो उसे जब तब ससुराल से बुलवा लेती थी.
ठाकुर की जमीन जायदाद और घर का सारा कार्यभार हीरामणि संभाले लगा. वे जितनी वृद्धावस्था को प्राप्त होते जा रहे थे.हीरामणि पर उनका भरोसा बढ़ता जा रहा था.
हीरामणि ने सारा जीवन ठकुराइन की सेवा में लगा दिया, उसने पुनर्विवाह नहीं किया.
एक दिन बातों बातों में ठकुराइन ने ठाकुर से पूछा "आपको हीरामणि पर इतना भरोसा कैसे है?"
ठाकुर हँस पड़े और बोले "फ़िर कभी बताऊंगा?"
"नहीं मुझे अभी जानना है."
"इतना हठ अच्छा नहीं है."
"चलो बता देता हूं. पर मेरी बात को अन्यथा ना लिया जाए."
"ठीक है अब पहेलियाँ ना बुझाइये."
"देखो हीरा हम सब से प्रेम करता है. मुझसे, तुमसे भी, प्रेमी व्यक्ति धोखा नहीं देता."
ठकुराइन ने अपने पति की ओर हैरानी से देखा.
"हाँ प्रेम की यही परिभाषा है उसमें त्याग होता है.हीरा ने त्याग किया है. हम सबके लिए."
"प्रेम तो उसकी पत्नी ने भी किया था और हीरा को छोड़ कर चली गई."ठकुराइन बोली.
"नहीं वो रोमांस था रोमांस में आदमी किसी व्यक्ति को प्राप्त करना चाहता है. जैसा उसने किया."ठाकुर बोले.
"प्रेम में प्रेमी जन दूसरे का भला चाहते हैं.यहाँ त्याग की भावना सर्वोपरि है. किसी भी हाल में उसके प्रेमी का अहित नहीं होना चाहिए."
ठकुराइन ने ठाकुर की ओर आश्चर्य से देखा वे कह रहे थे "अगर मेरे जाने के बाद तुम्हारा कोई अपना है तो ये हीरामणि ही है. इसे कभी भी इस घर से मत जाने देना."
ठकुराइन मुस्कुरा दी थी.
"ठाकुर आपने ये बाल धूप में ना सफ़ेद किये हैं."
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ठाकुर ने एक लम्बी उम्र पायी और ठकुराइन के साथ उनके सम्बन्ध बहुत मधुर रहे.
गुड़िया अपने बच्चों को नानी के पास भेजती रही. पहलेचाची माँ , फ़िर ठाकुर, बाद में हीरा भी दुनिया से कूच कर गए. आज भी ठाकुर के घर में ऊपर के हिस्से में गुड़िया की संतानें और नीचे हीरामणि के पुत्र का परिवार रहता है.
ठकुराइन के गाँव में पत्थर फेंकिए तो आज भी हर बहू बेटी पढ़ी लिखी मिलती है.सब अपना कोई ना कोई काम कर रही हैं.
ठकुराइन हीरामणि की मृत्यु के बाद अपनी ज़मीन का कुछ हिस्सा बेच कर ऋषिकेश में जा बसी हैं.
सुबह चार बजे की गंगा आरती करते हुए उन्हें देखा जा सकता है.
शुभ्र वस्त्र में एक स्त्री जिसके चेहरे पर असीम शान्ति और तेज है भीड़ में अलग से नज़र आ जाएगी.
समाप्त
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