Sunday, December 13, 2020

कविता घर गाँव औरतें


घर, गाँव, और औरतें 

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औरतें करती हैं तब्दील 

मकानों को घरों में 

अपनी हँसी से

आँसुओं से 

बातों से 

कभी कभी खामोशी से भी

तो कभी लफ़्फ़ाज़ी से...


झर झर बहती रहती हैं 

झरने सी 

घुली रहती हैं फ़िज़ा में 

महकी महकी पवन सी,

निकल जाती हैं वक़्त के संग 

इस पार से उस पार...


पहचानी जाती हैं अक्सर

शहरों के नाम से,

मायके में 

ससुराल के 

और ससुराल में 

मायके के शहर से...


भूली रहती हैं 

ख़ुद के रोज़बरोज़ में  

बहोत सी गैर ज़रूरी बातें 

क्योंकि

उनके पास तो हुआ करती है 

जादुई ताक़त 

किसी भी जगह को 

अपना घर बना लेने की ...


औरतें ख़्वाब में भी देखती है 

अपने पुराने गांव 

पेड़ों की छाँव, 

सावन के झूले, 

सारे रिश्ते, 

हँसी ठिठोली 

भूलता नहीं है उनको अपना कोई भी घर 

इसलिये तो भिगोती रहती हैं जब तब 

आँखों की कोर...


ज़िन्दगी की जद्दोजहद में 

मसरूफ़ 

मर्द नहीं सोच पाते इतना

और बनवाते हैं मकान 

अपनी दुलारी बेटी 

अपनी प्यारी बहन के लिए 

लेकिन नहीं रख पाते 

कोई एक कोना

जो हो सिर्फ उनका 

क्या हुआ फ़िक्र करते हैं वे उनकी...


बुलातें है वे उन्हें 

तीज त्यौहारों पर 

खबर भी रखते हैं उनकी 

एहतिराम भी करते हैं 

मगर मेहमान की तरह 

भर देते हैं बैग उनके रुखसती पर 

रख देते हैं हथेलियों पर 

बेशुमार नोट भी..

पसीजते हुए 

इन काग़ज़ के चंद टुकड़ों के साथ 

गीली हो जाती है रूह औरत की 

अन्दर तक

एक बोझ का एहसास 

नहीं लौटने देता उन्हें जल्द जल्द 

इस वाले घर में...


खो जाती हैं फिर से ये औरतें 

नहीं मिलतीं ढूँढने पर भी 

अपने पुराने घर में 

अपने बालपन के गाँव में 

फ़िसल जाती हैं वे यूँ 

जैसे कोई किरकिरी दानेदार रेत 

किसी भींची हुई मुट्ठी से...

औरत की

(काट छांट मुदिता गर्ग 😊, और विनोद सर द्वारा साभार !)

लफ़्फ़ाज़ी=वचालता, 

ऐहतिराम=सम्मान, 

रोज़ ब रोज़ =दिनचर्या से आशय है, 

रुखसती=विदाई, 

मसरूफ=व्यस्त

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