मन की मल्लिका
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अपनी धुन में ही रहती हूँ, कुछ गुन गुन करती रहती हूँ।
आँखें मेरी सब बोल रही
मुस्कान राज़ है खोल रही
परवाह नहीं कुछ भी मुझको
तुम चाहे मुझको जो समझो
ना ताज कोई ना तख़्त मेरा मन के सिंहासन पर बैठी हूँ।
कुछ गुन गुन करती रहती हूँ।।
मात्र हृदय पुष्प अर्पण हेतु
नहीं इसके सिवा कोई सेतु
निश्छल हूँ और भोली भाली
निष्कपट भाव मिलने वाली
नभ तक विस्तृत मेरा आँचल,किन्तु धरती पर बहती हूँ।
कुछ गुन गुन करती रहती हूँ।।
गर प्रेम से मुझे पुकारोगे
इर्द गिर्द स्वयं के पा लोगे
तनिक मिला तिरिस्कार अगर
दृढ़ हूँ चलने को अपनी डगर
तन कोमल दिखता है किन्तु मन से फ़ौलादी लड़की हूँ।
कुछ गुन गुन करती रहती हूँ।।
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