शब्द सृजन -दिल
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दिल की बात जुबां पे ग़र ले आऊं मैं
डरती हूँ कहीं तमाशा ना बन जाऊं मैं
ख़यालात मेरे ,ज़माने से जरा हट के हैं
रस्तों में कभी तनहा ना पड़ जाऊँ मैं
सफ़र में अपने मुद्दतों कभी रुकी ही नहीं
इक उम्मीद पे कि शायद मंजिल पा जाऊं मैं
कैसे छिड़ी जंग हवा में ,नज़र आता है मुझे
मिटा दे ग़लफ़हमी तू और चैन से हो जाऊं मैं
इत्तला करके अब आएंगे सब मिलने वाले
ज़माने के नये चलन से बहोत घबराऊँ मैं
प्रीति मिश्रा
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